महाभारतका प्रसंग है । धर्मयुद्ध अपने अंतिम चरणमें था । भीष्म पितामह शैय्यापर लेटे जीवनकी अंतिम घडियां गिन रहे थे । उन्हें इच्छा मृत्युका वरदान प्राप्त था और वे सूर्यके दक्षिणायनसे उत्तरायण होनेकी प्रतीक्षा कर रहे थे । धर्मराज युधिष्ठिर जानते थे कि पितामह उच्च कोटिके ज्ञान और जीवन संबंधी अनुभवसे संपन्न हैं । अतएव वे अपने भाइयों और पत्नी सहित उनके समक्ष पहुंचे और उनसे विनती की- पितामह,”आप विदाकी इस बेलामें हमें जीवनके लिए उपयोगी ऐसी शिक्षा दें, जो सदैव हमारा मार्गदर्शन करे ।”तब भीष्म पितामहने बडा ही उपयोगी जीवन दर्शन समझाया । नदी जब समुद्र तक पहुंचती है, तो अपने जलके प्रवाहके साथ बडे-बडे वृक्षोंको भी बहाकर ले आती है । एक दिन समुद्रने नदीसे प्रश्न किया,”तुम्हारा जलप्रवाह इतना शक्तिशाली है कि उसमें बडे-बडे वृक्ष भी बहकर आ जाते हैं । तुम पलभरमें उन्हें कहांसे कहां ले आती हो ? किंतु क्या कारण है कि छोटी व हल्की घास, कोमल बेलों और नम्र पौधोंको बहाकर नहीं ला पाती । नदीका उत्तर था, “जब-जब मेरे जलका बहाव आता है, तब बेलें झुक जाती हैं और उसे मार्ग दे देती हैं; किंतु वृक्ष अपनी कठोरताके कारण यह नहीं कर पाते, इसलिए मेरा प्रवाह उन्हें बहा ले आता है।” इस छोटेसे उदाहरणसे हमें सीखना चाहिए कि जीवनमें सदैव विनम्र रहें तभी व्यक्तिका अस्तित्त्व बना रहता है । सभी पांडवोंने भीष्मके इस उपदेशको ध्यानसे सुनकर अपने आचरणमें उतारा और सुखी हो गए ।
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