यदि त्याग करनेके पश्चात आपको लगता है कि उस धनका क्या हुआ होगा तो वह त्याग नहीं है !


एक व्यक्तिने कहा हमने फलां-फलां स्थानपर अर्पण दिया था किन्तु उन्होंने उस धनका क्या किया होगा यह मुझे पता नहीं !
     त्यागके विषयमें एक सरलसा सिद्धांत ध्यान रखें यदि त्याग करनेके पश्चात भी आपको लगता है कि उस धनका क्या हुआ होगा तो वह त्याग नहीं है ! त्याग तो किया ही इसलिए जाता है कि उसका विचार ही न आए | यदि आपकेद्वारा दिए गए धन या वस्तुका आपको बार-बार विचार आता है तो वह त्याग हुआ ही नहीं; क्योंकि आपकी आसक्ति तो रह ही गयी तो वह त्याग कैसे हुआ इसलिए ऐसे त्यागसे कोई लाभ नहीं होता है | वह मात्र अहंको बढाता है | इसलिए कहा गया है कि त्याग करता समय कृतज्ञताका भाव रखकर त्याग करना चाहिए और ईश्वरसे प्रार्थना करना चाहिए क्योंकि उन्होंने ही हमें दिया और उन्होंने किसी परोपकारके कार्य हेतु अर्पण करवा कर ले लिया ! और संतोंको यदि आपने दान दिया तो वह सर्वश्रेष्ट श्रेणीका होता है; क्योंकि संत परमेश्वरके सगुण रूप होते हैं; इसलिए उन्हें दान करनेसे हमारा संचित न्यून होता है अर्थात आनेवाले समयमें पिछले जन्मोंमें हुए पापके कारण जो कष्ट या दुःख हम भोगनेवाले हैं वह संचित नष्ट हो जानेसे उसे भोगना ही नहीं पडता है !
     इसलिए दान देनेसे पूर्व अच्छेसे विचार करना चाहिए कि क्या सचमें जिसे दान दे रहे हैं वह सुपात्र है एवं क्या निष्काम दान देनेकी मेरी तैयारी है ? यदि नहीं है तो दान भावनामें बहकर नहीं देना चाहिए क्योंकि दान देकर पछताना तो एक प्रकारसे पापकर्म ही है; क्योंकि जो आपके पास था वह तो ईश्वरने ही आपको दिया था; जिस कर्मको करके आपने धन अर्जित किया था वह भी तो ईश्वरप्रेरित था क्या यदि ईश्वरकी इच्छा न हो तो आपके एक रुपया भी अर्जित कर सकते थे ? ईश्वरका दिया ईश्वरीय कार्य निमित्त दे दिया तो इसमें पछताना कैसा ? इसलिए दान देनेकी संधि मिलनेपर सतत ईश्वरको कृतज्ञता व्यक्त होनी चाहिए कि आपने इस निकृष्ट जीवसे दान करवाकर ले लिया  ! – (पू.) तनुजा ठाकुर


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