पूर्व कालमें तीनों वर्णके पुरुष यज्ञोपवित धारण करते थे; किन्तु आजकाल अनेक ब्राह्मण युवा जिनके यज्ञोपवीत संस्कार हो जाते हैं, वे भी इसे धारण नहीं करते हैं; इसलिए यह लेख श्रृंखला आरम्भ कर रही हूं जिससे पुरुषोंको इसका महत्त्व ज्ञात हो सके और वे इसे धारण करना आरम्भ कर सकें !
यज्ञोपवीत भारतीय संस्कृतिका मौलिक सूत्र है । इसका सम्बन्ध हमारे अध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक जीवनसे है । हिन्दू धर्ममें किए जानेवाले सोलाह संस्कारोंमेंसे एक संस्कार कर्म यज्ञोपवीत है ! यज्ञोपवीतको जनेऊ, यज्ञसूत्र, ब्रह्मसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध और मोनीबन्ध भी कहा जाता है । बाएं कन्धेपर स्थित जनेऊ देवभावकी तथा दाएं कन्धेपर स्थित पितृभावकी द्द्योतक है, इसलिए पितृकर्म करते समय सव्य-अपसव्य किया जाता है । मनुष्यत्वसे देवत्व प्राप्त करने हेतु यज्ञोपवीत सशक्त साधन है । इसे पुरुषद्वारा धारण करनेकी प्राचीन परम्परा है !
प्राचीन समयमें वर्णाश्रम व्यवस्थाके अन्तर्गत भिन्न वर्णोंके लिये भिन्न समयानुसार उपनयन संस्कार करनेका विधान रहा है । शास्त्रानुसार यह ब्राह्मण वर्णके जातकोंका आठवें वर्षमें तो क्षत्रिय जातकोंका ग्यारहवें एवं वैश्य जातकोंका उपनयन बारहवें वर्षमें किया जाता था । शूद्र वर्ण व कन्याएं उपनयन संस्कारकी अधिकारी नहीं मानी जाती थी, यद्यपि अति प्राचीन कालमें जब स्त्रियान भी वेदाध्ययनकी अधिकारिणी होती थीं तब उनका भी उपनयन संस्कार होता था । जिन ब्राह्मण जातकोंकी तीव्र बुद्धि हो उनके लिए उपनयन संस्कार वर्णानुसार पांचवें, जो क्षत्रिय जातक शक्तिशाली हों उनका छठे व जो वैश्य जातक कृषि करनेकी इच्छा रखते हों उनका उपनयन आठवें वर्षमें किया जा सकता था । उपनयन संस्कारके लिए अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन जातकों का उपनयन संस्कार नहीं होता था, उन्हें व्रात्य कहा जाता और समाजमें इसे निन्दनीय भी माना जाता । (क्रमश:)
बहुत अच्छी जानकारी, आज के समय में नई पीढी ने तो यज्ञोपवीत पहहना बिलकुल ही बंद कर दिया है .. और अब तो यह संस्कार कई राज्यों में लड़के की शादी की रस्मों के साथ कर दिया जाता है …
Thanks