यज्ञोपवीत क्यों धारण करना चाहिए ? (भाग – २)


यज्ञोपवीत सांस्कृतिक मूल्योंके आधार पर अपने जीवनमें आमूलचूल परिवर्तनके संकल्पका प्रतीक है । इसके साथ ही गायत्री मन्त्रकी आचार्य दीक्षा भी दी जाती है । दीक्षा यज्ञोपवीत मिलकर द्विजत्वका संस्कार पूरा करते हैं । इसका अर्थ होता है- ‘दूसरा जन्म’ । शास्त्रवचन है- ‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते ॥’ (स्कन्द ६.२३९.३१)
जन्मसे मनुष्य एक प्रकारका संस्कारहीन जीव है । उसमें स्वार्थपरताकी वृत्ति अन्य जीव- जन्तुओं जैसी ही होती है एवं मात्र उत्कृष्ट आदर्शवादी संस्कारोंद्वारा वह सुसंस्कृत मनुष्य बनता है । जब मनुष्यकी आस्था यह बन जाती है कि उसे एक उच्च आदर्शयुक्त सभ्य एवं सुसंस्कृत जीवन जीना है तो उसी आधारपर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, उसके पश्चात ही कहा जा सकता है कि इसने देहधारी पशु योनि त्यागकर मनुष्य योनिमें प्रवेश किया है, अन्यथा पशुवत नर-नारियोंसे तो यह संसार भरा पडा है । स्वार्थकी संकीर्णतासे निकलकर परमार्थकी महानतामें प्रवेश करनेको, पशुताको त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करनेको दूसरा जन्म कहते हैं ।
देहका अस्तित्व, माता- पिताके रज- वीर्यसे वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का । आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेनेकी प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्ममें प्रवेश करना है । इसीको ‘द्विजत्व’ कहते हैं । द्विजत्वका अर्थ है, दूसरा जन्म; इसलिए पूर्वकालमें तीन वर्णोंके लिए द्विज संस्कार अनिवार्य होता था । शुद्रके लिए यह संस्कारका विधान इसलिए नहीं बताया गया था; क्योंकि शूद्रका वर्ण व्यवस्था अनुसार अर्थ है जो बुद्धिहीन, तमोगुण प्रधान होता है, उसके लिए गायत्री मंत्र जपना, शास्त्रोक्त विधि-विधानका पालन करना बहुत कठिन होता है ! वह मद्य, मांसके बिना नहीं एक दिवस भी रह नहीं सकता है !
जनेऊको धारण करने हेतु एक संस्कार कर्मको समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कारके नामसे सम्पन्न किया जाता है । इस व्रत बंधनको आजीवन स्मरण रखने और व्यवहारमें लानेकी प्रतिज्ञाका प्रतीकको स्मरण रखने हेतु यज्ञोपवीत कन्धे पर डाले रहना होता है । शास्त्र तो यह कहता है कि यज्ञोपवीत बालकको तब देना चाहिए, जब उसकी बुद्धि और भावनाका इतना विकास हो जाए कि इस संस्कारके प्रयोजनको समझकर उसके निर्वाहके लिए वह आजीवन संकल्पबद्ध उसके निमित्त आचारधर्मका पालन करे सके ।
यज्ञोपवीत रुपी विशिष्ट सूत्रको विशेष विधिसे ग्रन्थित करके बनाया जाता  है । इसमें सात ग्रन्थियां लगाई जाती हैं । ब्राह्मणोंके यज्ञोपवीतमें ब्रह्मग्रन्थि होती है । तीन सूत्रोंवाला यह यज्ञोपवीत, हिन्दू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेशके प्रतीक होते हैं । अपवित्र होनेपर यज्ञोपवीत परिवर्तित किया जाता है । द्विजके लिए बिना यज्ञोपवीत धारण किए, अन्न जल ग्रहण करना महापाप माना जाता है !
यज्ञोपवीत धारण करनेका मन्त्र है :
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।



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