सशस्त्र संघर्षके पुरोधा आदि क्रान्तिकारी वासुदेव बलवन्त फडके


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१७ फरवरी २०१७ को वीर सेनानी वासुदेव बलवन्त फडकेका स्मृतिदिवस है । आइए ! इस दिवसके उपलक्ष्यमें हम इस हुतात्माके विषयमें जानकर उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करें !

१. सशस्त्र संघर्षका जनक

भारतमें जब १८५७ की क्रान्तिमें अंग्रेज भारतीयोंपर अत्याचार कर रहे थे, उस समय इस बालककी आयु मात्र १२ वर्ष थी; परन्तु यह बालक देख रहा था कि भारतीय अंग्रेजोंसे लाठी-दण्डकी सहायतासे ही लड रहे हैं और अंग्रेज ‘गोलियों’से भारतीयोंको मार रहे हैं । तभी इस बालकको आभास हुआ कि शत्रुओंसे देशकी रक्षाके लिए हमें भी उनके जैसे अस्त्र-शस्त्रादिकी आवश्यकता है । मात्र बारह वर्षकी अल्पायुमें परिस्थितियोंके अनुकूल निर्णय लेनेकी क्षमता रखनेवाले इस क्रान्तिकारीका नाम वासुदेव बलवन्त फडके है, जिसने भारत देशकी स्वतन्त्रताके लिए सर्वप्रथम शस्त्रोंका अवलम्बन लिया था । इसीलिए वासुदेव बलवन्त फडकेको सशस्त्र संघर्षका जनक (फादर ऑफ़ आर्म्ड स्ट्रगल) कहा जाता है ।

२. छोटी-छोटी जातियों तथा समूहोंको जोडकर किया संग्रामका शुभारम्भ

ख्रिस्ताब्द ४ नवम्बर, १८४५ को शिरढोणे गांव, रायगढ, महाराष्ट्रमें जन्मे इस आदि क्रान्तिकारीके नाम भारतका सबसे प्रमुख आन्दोलन भी है । इस आन्दोलनका कोई नाम तो नहीं है; किन्तु वासुदेव बलवन्त फडकेने संख्याबलमें छोटी-छोटी जातियों तथा समूहोंको जोडकर, उन्होंने ‘रामोशी’ नामका क्रान्तिकारी संगठन खडा किया और अंग्रेजोंसे संघर्ष किया । जब इन लोगोंने वासुदेव बलवन्त फडकेका साथ दिया तो इससे समाजकी इन जातियोंके लोगोंका गौरव भी बढा था ।

३. अंग्रेजोंके अपमानास्पद वर्तनने उनमें फूंकी प्रतिशोधकी ज्वाला

वासुदेव बलवन्त फडके विदेशी शासनके घोर विरोधी तथा अपनी मातृभूमिके प्रति अगाध श्रद्धा अपने मनमें रखते थे । वे एक अंग्रेजके कारण अपनी मांके अन्तिम दर्शन नहीं कर पाए थे, इस घटनाने उनके मनमें विक्षोभ भर दिया, जिसका रूपान्तरण कालान्तरमें विद्रोहके रूपमें हुआ । यह बात उन दिनोंकी है जब वासुदेव मुम्बईमें एक अंग्रेजकी चाकरी (नौकरी) कर रहे थे । एक दिन इन्हें अपने ग्रामसे आए एक पत्रके माध्यमसे अपनी माताजीके अस्वस्थ होनेकी सूचना प्राप्त हुई और इन्हें गांवमें शीघ्र बुलाया गया । वासुदेवजी यह पत्र लेकर अंग्रेजके पास अवकाश मांगने गए; किन्तु अंग्रेजने इनका अपमान किया और इनकी माताके प्रति अपशब्द बोलकर, इन्हें अवकाशपर जानेकी अनुमति देनेका निषेध किया; परन्तु हठी (जिद्दी) वासुदेव बिना बोले ही अगले दिन गांव चले गए और गांवमें जाकर देखा कि उनकी माताका निधन हो चुका है । इस बातसे दुःखी वासुदेव अंग्रेजद्वारा किया अपमान भी नहीं भूल पाए और उसी दिन अंग्रेजोंसे प्रतिशोध लेनेकी ठान ली ।

४. अंग्रेजोंके विरुद्ध सीमित साधनोंसे उनकेद्वारा किए गए संघर्षकी संक्षिप्त जानकारी

अपनी किशोरावस्थामें वे १८५७ का स्वतन्त्रता संग्राम देख चुके थे तथा अंग्रेजोंने जिस क्रूरतासे क्रान्तिमें भारतीयोंको फांसीपर लटकाया था, इसका भय समाजमें व्याप्त था । भारतीयोंके मनमें यह धारणा घर कर गई थी कि जैसे अंग्रेजोंसे लडना अत्यन्त दुष्कर है । इसी बातसे भयभीत कोई भी व्यक्ति वासुदेव बलवन्त फडकेका साथ नहीं दे रहा था। वासुदेव अंग्रेजोंके विरुद्ध स्वतन्त्रताका संग्राम प्रारम्भ करना चाहते थे; किन्तु समाजसे लोग इनके साथ नहीं आ रहे थे । तब इन्होनें रामायणसे प्रेरित हो भगवान रामकी भांति समाजकी मुख्यधारासे दूर रह रहे कोली, भील, धांगड जैसी जातियोंकी सेना बनाई और इन्हींके देशी अस्त्र-शस्त्रोंसे अंग्रेजोंपर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था । इनकी मात्र ३०० लोगोंकी सेना महाराष्ट्रके सात जनपदोंमें अंग्रेजोंसे लड रही थी । अंग्रेजोंको मारकर उनके ही अस्त्र-शस्त्रोंसे उनको मारना उनका मुख्य और रोचक कार्य बन गया था । इन्होंने अपनी देशी अग्निचूर्णसे (बारूदसे) ही अंग्रेजोंको परास्त कर दिया और पुणेको मुक्त भी करा लिया था तभी उन्हें विशेष प्रसिद्धि भी मिली थी । यद्यपि पुणेपर पुनः अंग्रेजोंने अधिकार कर लिया था; किन्तु वासुदेव बलवन्त फडकेसे अंग्रेज अत्यधिक भयभीत हो गए और इन्हें जीवित अथवा मृत बन्दी बनाने हेतु ख्रिस्ताब्द १८७९ में ५० सहस्र (हजार) रुपयोंका पुरस्कार इस हेतु रखा गया था; किन्तु दूसरे ही दिन मुम्बई नगरमें वासुदेवके हस्ताक्षरसे पत्रक लगा दिए गए कि जो अंग्रेज अधिकारी ‘रिचर्ड’का सिर काटकर लाएगा, उसे ७५ सहस्र (हज़ार) रुपएका पारितोषिक दिया जाएगा । अंग्रेज इससे और भी विचलित हो गए । अन्ततः संघर्ष करते-करते साथियोंके सतत् वीरगति पाने तथा संसाधनोंके अभावमें उनकी शक्ति क्षीण होती गई और किसी राष्ट्रद्रोहीकी सूचनापर वे बन्दी बना लिए गए और ख्रिस्ताब्द ३१ अगस्त १८७९ को इनको आजीवन कारावासका दण्ड दिया गया तथा अदन (एडन) भेज दिया गया; किन्तु वासुदेव बलवन्त फडके कारागृह तोडकर भी एक बार भाग गए थे, परन्तु स्थानसे अपरिचित होनेके कारण पुनः बन्दी बना लिए गए और तत्पश्चात् उन्हें दी गई यातनाओंके कारण उन्हें क्षयरोग हो गया, जिस कारण इस महान देशभक्तने ख्रिस्ताब्द १७ फरवरी, १८८३ को अदन (एडन) के बन्दीगृहके अन्दर ही प्राण त्याग दिए । हुतात्मा फडकेजीका क्रान्तिकारी जीवन भले ही अल्पकालिक रहा हो; किन्तु भारतकी स्वतन्त्रताके लिए सशस्त्र आन्दोलन की आधारशिला उन्होंने रखी; अतः उन्हें सशस्त्र क्रान्तिका जनक भी कहा जाता है । हम उनके देशप्रेम, त्याग एवं क्षात्रवृत्तिको नमन करते हैं । – तनुजा ठाकुर

 



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