१. धर्मप्रसारसे ज्ञान बढता है
धर्मप्रसारके मध्य जब हम भिन्न प्रकारके जिज्ञासुओं एवं साधकोंसे मिलते हैं तो कई बार उनसे सीखते हैं और कई बार उनकेद्वारा पूछे गए प्रश्नके उत्तर ढूंढनेके क्रममें हमारे ज्ञानके भंडारमें बढोत्तरी होती है | समाजको धर्मकी शिक्षा देनी है इस कारण हम धर्मका अभ्यास कर ज्ञानार्जन करते हैं | हिन्दु धर्ममें एक धर्मग्रंथ, एक उपासना–पद्धति तो है नहीं और न ही एक योग मार्ग है ऐसेमें वैदिक सनातन धर्मका अध्यात्मशास्त्र एक महासागर समान है और एक साधकके लिए सभी योगमार्ग, धर्मग्रंथ एवं उपासना पद्धतिमें पारंगत होना कठिन है, अतः धर्मप्रसारके माध्यमसे हमें वैदिक ज्ञानकी व्यापकताकी अत्यधिक सुंदर झलक मिलती है जब हम समाजमें भिन्न साधक या संतको भिन्न साधना मार्गसे आध्यात्मिक प्रगति करते हुए देखते हैं तो हमें अध्यात्मको प्रत्यक्ष सीखनेका सुंदर सौभाग्य मिल जाता है |
२. धर्मप्रसारकी सेवासे समष्टि साधनाका साध्य होना
साधनाके दो प्रकार हैं एक है व्यष्टि साधना और दूसरा है समष्टि साधना |
व्यष्टि साधना अर्थात जिन आध्यात्मिक प्रयाससे स्वयंकी आध्यात्मिक प्रगति हो और समष्टि साधना अर्थात समाजकी आध्यात्मिक प्रगति हेतु धर्मशिक्षण देनेके माध्यमसे प्रयास करना | हमारे श्रीगुरु परम पूज्य डॉ. आठवलेके अनुसार कलिकालमें व्यष्टि साधनाका महत्त्व ३०% है और समष्टि साधनाका महत्त्व ७०% है | तन, मन धन, बुद्धि एवं कौशल्य अर्पण कर धर्मप्रसारकी सेवामें यथा शक्ति सहभागी होनेसे समष्टि साधना सहज ही संभव हो जाता है |
३. धर्मप्रसारकी सेवासे संतोंके कृपा पात्र बनना
संतोंकी कृपा पानेका सहज मार्ग है उनके प्रिय कार्यमें सहभागी होना | धर्मका रक्षण हो एवं सर्व प्राणी धर्माचरण करते हुए सुखी एवं आनंदी रहे यह संतोंका मूलभूत समष्टि उद्देश्य होता है | अतः जब हम संतोंके कार्यमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें सहभागी होते हैं तो हमें उनकी कृपा सहज ही मिल जाती है, संतोंके कार्यमें पूर्ण समय साधना करनेसे हमें उनकी कृपा सौ प्रतिशत प्राप्त होती है और घर गृहस्थी संभालते हुए यथाशक्ति उनके कार्यमें सहभागी होनेसे उनकी कृपा ७०% तक प्राप्त होती है, वहीं उनके दर्शन करनेसे उनकी कृपा मात्र २% अर्थात नगण्य समान प्राप्त होता है |
४. धर्मप्रसारसे निर्गुण गुरुकी कृपाका प्राप्त होना :
गुरुके दो रूप होते है एक है सगुण रूप और दूसरा है निर्गुण रूप | सगुण रूप अर्थात देहधारी गुरु और निर्गुण रूप अर्थात ईश्वरका निर्गुण स्वरूप | धर्म अच्युत अर्थात भगवान विष्णुका स्वरूप है अतः यदि किसी साधकके जीवनमें देहधारी गुरु न भी हो तो भी धर्मप्रसारकी सेवामें सहभाग होनेसे ईश्वरीय कृपाका संचार उसपर आरंभ हो जाता हैं और भक्ति एवं त्यागकी भावना बढ जानेपर सगुण गुरुकी कृपाका जीवनमें शुभागमन हो जाता है | संक्षेपमें जिन साधकको गुरु पानेकी ललक और तडप है उन्होंने धर्मप्रसारकी सेवामें निष्काम भावसे यथाशक्ति सहयोग करनेका प्रयास करना चाहिए |
५. धर्मप्रसारकी सेवा अर्थात वर्णानुसार साधनाका एक उत्तम माध्यम :
धर्मप्रसारकी सेवा में बुद्धि अर्पण कर धर्मशिक्षण देनेवालोंकी ब्राह्मण वर्णकी सेवा हो जाती है, संत-गुरु, देवी-देवता, धर्मग्रंथ, गौ, गंगा, भारतमाता इत्यादिकी विडम्बना रोकने हेतु, धर्म रक्षणार्थ समाजको मानसिक रूपसे धर्मद्रोहियोंके विरुद्ध कृति करनेके लिए प्रेरित करने एवं स्वयं भी इस हेतु प्राण अर्पण करनेकी तैयारी रखनेको क्षत्रिय वर्णकी साधना कहते हैं | वर्तमान समयमें क्षत्रिय वर्णकी साधनाका अधिक महत्त्व है | उसी प्रकार धर्मकार्य हेतु निष्काम भावसे प्रत्येक मास धर्मके मार्गका अनुसरण कर अपने मासिक आयका दशांश अर्पण करनेसे वैश्य वर्णकी साधना हो जाती है और शरीरके माध्यमसे ग्रंथ प्रदर्शिनी लगाना, घर-घर जाकर सत्संगमें आने हेतु निमंत्रण पत्र बांटना एवं भीतिपत्रक एवं फलक लगाना जैसी सेवा करनेसे शूद्र वर्णकी सेवा होती है | तीव्र गतिसे आध्यात्मिक प्रगति हेतु चारों वर्णसे आध्यात्मिक प्रयास करना परम आवश्यक है अर्थात ईश्वरने जो दिया है उसे पुनः ईश्वर चरणोंमें अर्पण करनेको वर्णानुसार साधना कहते हैं और धर्मप्रसारकी सेवा वर्णानुसार साधना करनेका एक उत्तम माध्यम है !
६. धर्मप्रसारकी सेवासे अहं कम होना :
धर्मप्रसारकी सेवा करते समय कोई हमें प्रेमसे बुलाकर सुनता है तो कोई हमें दुत्कार कर भगा देता है | कोई हमारी ज्ञान एवं त्यागकी भावनाका आदर करता है तो कोई हमें ढोंगी कहकर हमारा अपमान करता है | इस प्रकार दोनों ही परिस्थितिमें जब कोई प्रतिक्रिया नहीं देते तो हम धीरे-धीरे समत्त्व भावकी ओर बढते है और हमारी आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र होने लगती है | साथ ही समाजमें मुझसे अच्छे साधक और ज्ञानी हैं यह जानकर हमारा अहं कम होने लगता है | धर्मप्रसारकी सेवा करते समय दूसरोंको किस प्रकार साधना एवं अध्यात्मशास्त्र बताया जाय इसका हम अभ्यास करते हैं , दूसरोंके बारमें विचार करनेसे स्वयंके विचार कम होने लगते हैं और हमारा अहं कम होने लगता है | साथ ही अहंके लक्षण क्या हैं यह अहंयुक्त साधकसे मिलनेपर सीखनेके लिए मिलता है | और साथ ही अहं निर्मूलनके बारेमें जागृति निर्माण करने हेतु, विषय बताते समय हम स्वयं भी अंतर्मुख होने लगते हैं और अहं दूर करनेके प्रयास करने लगते हैं |
७. धर्मप्रसारकी सेवासे देह बुद्धिका कम होना :
एक संतने कहा है मात्र सर्वश्रेष्ठ भक्त ही धर्मप्रसारकी सेवा कर सकता है | धर्मप्रसारकी सेवा करते समय प्रत्येक क्षण साधकत्त्वकी परीक्षा होती है | प्रसारकी सेवा करनेवाले साधकको अनेक बार विपरीत परिस्थितिका सामना करना पडता है | साधकको प्रसार कार्य हेतु कई बार अपने घर-द्वार, सुख-सुविधा एवं अपने परिवारजनोंका सान्निध्य छोडकर प्रतिकूल वातावरणमें रहना पडता है तो कभी अनेक दिन तक अपनी रुचि अनुसार भोजनके न मिलने से भोजनके प्रति आसक्ति नष्ट हो, मनके रुचि- अरुचिके संस्कार नष्ट हो जाते हैं, तो कभी सेवाके मध्य स्नान एवं समयपर भोजन न कर पानेकी स्थिति निर्माण हो जाती है और तब साधक सब कुछ सहज सहन करने लगता है तब ऐसी परिस्थितिका सामना करते-करते साधककी देह बुद्धि कम हो जाती है और वह आनंदमें रहने लगता है | – तनुजा ठाकुर
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