वर्णधर्मके न पालन करनेसे ही जाति व्यवस्था हुई है यह दुर्गति


वर्तमानकालमें वर्ण व्यवस्था अनुसार हिन्दू अपना धर्मपालन नहीं करते हैं; किन्तु अपनी जातिपर अनावश्यक गर्व अवश्य ही करते हैं । इसी वृत्तिने समाजकी यह दुर्दशा कर दी है । हमारे धर्मशास्त्रोंमें प्रत्येक वर्णके लिए उनका धर्म क्या है ? यह स्पष्ट रूपसे बताया गया है और जबतक हिन्दू समाज अपने वर्ण धर्म अनुसार कर्तव्योंका पालन पूरी निष्ठासे करता था, तबतक यह समाज सम्पूर्ण विश्वका आदर्श समाज था । कालान्तरमें धर्मका ह्रास हुआ और समाज अपने वर्णधर्मसे भी दूर होता चला गया; फलस्वरूप सर्वत्र अराजकता निर्मित हो गई । यदि समाजको पुनः सुखी बनाकर अध्यात्मकी ओर प्रवृत्त करना है तो सभीके वर्णके अनुसार शास्त्रोंमें बताए गए कर्तव्योंका निष्ठासे पालन करना होगा, यही एक मात्र उपाय है ।

स्मृतिरत्न मनुस्मृतिमें निर्दिष्ट चारों वर्णोंके धर्मकर्तव्य बताए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं :

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ‌‌।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य  समासत: ॥

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च ॥

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत् ।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया ॥ (१:८८ -९१)

अर्थात अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना,  ये छह कर्म ब्राह्मणोंके हैं । प्रजाका पालन, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन और विषयोंमें अनासक्त रहना ये क्षत्रियके धर्म हैं । पशुओंका पालन, दान, यज्ञ, अध्ययन, व्यापार, ब्याज एवं कृषि, ये वैश्यके धर्म हैं । द्वेषरहित होकर इन तीनों वर्णोंकी सेवा करना शुद्रका कर्म है ।

इस शास्त्र वचनसे स्पष्ट है कि जिसके पास जो है, उससे समाज एवं धर्म अधिष्ठित कार्य करना यह वर्णधर्मकी विशेषता है ।

जिसके पास तीक्ष्ण बुद्धि न हो, जिससे वह धर्मशास्त्र न पढ सके, न धन हो एवं न ही प्राण अर्पण करनेकी सिद्धता हो तो उनका वर्ण शूद्र होता है । ऐसेमें वह भी अपना सर्वांगीण विकास शेष तीनों वर्णोंकी सेवामें सहकार्य करके कर सकता है । जीवकी लौकिक एवं अलौकिक प्रगति हेतु इतनी उदात्त व्यवस्था और किसी धर्म या पन्थमें है क्या ? तब भी हम हिन्दू, इस दैवी व्यवस्थाका पालन न कर, अपनी अधोगति कर रहे हैं !



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