श्रद्दधानः शुभां विद्या हीनादपि समाप्नुयात् ।
सुवर्णमपि चामेध्यादाददीताविचारयन् ॥
अर्थ : भीष्म, युधिष्ठिरसे कहते हैं : नीच वर्णके पुरुषके पास भी उत्तम विद्या हो तो उसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करनी चाहिए और सोना अपवित्र स्थानमें भी पडा हो तो उसे बिना हिचकिचाहटके उठा लेना चाहिए ।
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परेषां यदसूयेत न तत् कुर्यात् स्वयं नरः ।
यो ह्यसूयुस्तथायुक्तः सोsवहासं नियच्छति ॥
अर्थ : पराशर मुनि, राजा जनकको कल्याण प्राप्तिके साधनका उपदेश करते हुए कहते हैं : मनुष्य दूसरेके जिस कर्मकी निन्दा करे, उसको स्वयं भी न करे ! जो दूसरोंकी निन्दा करता है; किन्तु स्वयं उसी निन्द्य कर्ममें लगा रहता है, वह उपहासका पात्र होता है ।
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