साधना की दृष्टिकोण देती कुछ प्रेरक कहानियां


kabeer

संतो से सम्बंधित प्रसंगों ने मुझे सदा ही आकर्षित किया है | मैं बचपन से ही तृप्त व्यक्तितत्व रही थी बस एक ज्ञान पाने की पिपासा अत्यधिक रही अतः ग्रंथों से विशेष लगाव रहा | महाविद्यालय में पहुँचने के पश्चात अपने कपडे स्वयं डिजाईन करने पहनने का , एक नए शौक ने जन्म लिया ( परन्तु मैंने अपने शरीर पर कभी पाश्चात्य संस्कृति के वस्त्र नहीं डाले क्योंकि वे मुझे कभी पसंद नहीं आते थे ) और किसी वस्तु से विशेष प्रेम नहीं था अतः मेरी माँ मेरी यह शौक देख प्रसन्न रहती | एक जुलाई १९९७ में एक ग्रन्थ पढ़ रही थी उसमे कबीरदास के जीवन से सम्बंधित कुछ प्रेरक प्रसंग थे | मैंने वह ग्रन्थ पढ़ें आरम्भ किये उन कहानियों में से कुछ कथा ने मेरे जीवन की दिशा परिवर्तित कर दी |
आज एक प्रसंग उस ग्रन्थ से आपके समक्ष प्रस्तुत करती हूँ |
एक दिन एक सेठ ने सोचा सब कबीर दास जी की बड़ी चर्चा करते हैं मैं भी कल उनके प्रवचन सुनने जाऊंगा, देखूं तो सही ऐसी क्या विशेष बात है उनमे कि सब उनकी प्रशंसा करते हैं | अगेल दिन सेठ सुबह के सत्र के प्रवचन सुनने गए | प्रवचन सुनते समय सेठ जी का ध्यान कबीरदास के अनमोल वचन पर गए और वे उन्हें सुनकर बड़े आन्नदित हुए और उन्हें भी लगने लगा कि कुछ तो विशेष बात हैं इनमें | परन्तु तभी उनका ध्यान कबीरदास जी के द्वारा पहने हुए उनके खद्दर कुर्ते पर गया उन्हें लगा इतने ऊँचे स्तर के संत और ऐसी निम्न स्टार का वस्त्र ! उन्होंने सोचा कल इनके लिए मखमल का कल कुर्ता लेकर आऊंगा | बस अगले दिन एक अत्यधिक सुन्दर मखमल का कुर्ता लेकर आ गए और कबीरदास जी के समक्ष रखकर उसे पहनने का अनुरोध करने लगे , कबीरदास ने मूल्यवान कुर्ते को उलटपुलट कर देखा और कहा कल पहनेंगे | सेठजी बड़े प्रसंन्न हो गए | अगले दिन जब प्रवचन के समय उन्होंने कबीरदास तो कुर्ता पहने देखा तो हथप्रभ रह गए उन्होंने उसे उल्टा पहन रखा था !!! उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ की कबीर जी ऐसा क्यों किया यह प्रश्न प्रवचन के समय उनके मन में कौंधते रहा | सारे भक्त गण भी मन ही मन सोच रहे थी कि आज गुरूजी ने यह क्या लीला रची , कुर्ता उल्टा क्यों डाला ?
प्रवचन समाप्त हुआ , कबीरदास जी की दृष्टि सेठजी पर पड़ी , उसके आँखों में जो प्रश्नचिंह था उसे देखकर कबीरदास जी बोले “अरे हाँ सुनो, मैं तो बताना ही भूल गया यह मूल्यवान कुर्ता मुझे इस सेठजी ने दी थी कल, इसलिए आज इसे पहन कर प्रवचन कर रहा था और सबसे पूछ बैठे “कैसा है” ? सेठ जी तपाक से बोल पड़े आपने तो कुर्ते को उल्टा पहन रखा है , कबीरदास जी मुस्कराए और बोले ” अरे मैं साधारण सा बुनकर इतने महंगा कुर्ता शायद ही कभी मोल ले पाउँगा इसलिए सोचा इसका मखमली भाग का सुख इस शरीर के चमड़ी को ले लेने दें | (मखमल का ऊपरी भाग मुलायम होता है ) , मैंने सोचा लोग देखकर क्या करेंगे, कम से शरीर को कुछ क्षणों के लिए सुख मिल जायेगा !!!! यह सुन सेठजी ने कबीरदास के चरण पकड़ लिए और बोले ” मैं सोचता था आपमें ऐसी क्या बात है जो सभी आपकी प्रशंसा करते हैं आप तो सचमुच लोकलाज, .अहम् , विकार सबसे परे हैं हम आपके दर्शन कर धन्य हो गए | कबीरदास जी मुस्कुराकर बोले ” सेठजी कपडे का काम है , धुप , सर्दी , गर्मी और लोक लाज से बचाना और वैसे कपडे तो मैं स्वयं बुन ही लेता हूँ अतः कपड़ों की आवश्यकता को पूर्ण कर देता है !
इस कथा का आशय मुझे भी समझ में आ गया और उस दिन के पश्च्चात कपडे और उसके मूल्य और डिजाईन पर ध्यान देना कम कर दिया | और दो महीने के पश्चात मेरे दर्जी ने मुझसे कहा ” एक बात कहूँ ” मैंने कहा “क्या ” वे बोले “आपमें अत्यधिक परिवर्तन आ गया है पहले कितनी भी अच्छे प्रकार से सिलाई करूँ आप सदा ही कुछ न कुछ मीन -मेख (कमी ) निकाल ही देती थी पर इधर कुछ दिनों से देखता हूँ मैं कैसा भी कपडा सिल दूँ आप कुछ नहीं कहती” !!! मैंने मन ही मन में कबीरदास जी की उस प्रेरक प्रसंग के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की | १९९८ के पश्चात पूर्णकालिक साधक हो जाने पर दुसरे के रूचि के अनुसार ही कपडे पहनती रही, बिना कोई कमी निकाले , वस्तुतः मेरे श्रीगुरु ने मेरी पूर्व तैयारी करायी थी इस कथा के माध्यम से |
वर्ष २००४ से परपूज्य गुरुदेव ने सात्त्विक वस्त्र इस विषय के बारे में बताया कि सूती और रेशमी वस्त्र सात्त्विक होते हैं और स्त्रीयों ने साड़ी अर्थात भारतीय परिधान पहनना चाहिए , परन्तु आश्चर्य की बात यह थी की जैसा उन्होंने बताया था मैं १९९८ से वैसे ही वस्त्र स्वतः ही पहनती थी और जो भी व्यक्ति मुझे वस्त्र देते थे वह भी सात्त्विक ही होते थे ! यदि साधक एक चरण का दृष्टिकोण सीखकर उसे चरितार्थ करता है तो अगले चरण में वह स्वत: ही चला जाता है इसकी प्रचिती मुझे हुई |



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