तीनों भाषाओंमें अल्प प्रमाणमें लिख पाना, मेरे श्रीगुरुकी कृपा और मेरे पिताद्वारा दिये गए संस्कारका है परिणाम –


आपने देखा होगा कि मैं हिन्दी, अङ्ग्रेज़ी और संस्कृत तीनों ही भाषामें आपसे लेख साझा करती हूं इसका मूल श्रेय मेरे माता-पिताको जाता है या यूं कहूं कि मेरे श्रीगुरुने मेरे माता-पिताके माध्यमसे मुझे मेरे भविष्यकी पूर्व तैयारी कारवाई। गुरुको अपने शिष्यकी कार्य ज्ञात होते हैं और वे उनके जीवनमें स्थूल रूपमें आनेसे पूर्व ही उनका मार्गदर्शन अन्य माध्यमों से करने लगते हैं।
मेरे माता-पिताने मुझे अंगेजी माध्यममें पढाया है। जब मैं पांचवीं कक्षामें थी तो एक दिवस मैंने अपने पिताजीसे कहा कि हम अङ्ग्रेज़ीमें समाचार पत्र मंगवाएंगे, उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर प्रेमसे समझाते हुए कहा “ हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है उसपर हमारा प्रभुत्व होना चाहिए और समाचार पत्र एक अच्छा माध्यम है जिससे आप नित्य हिन्दीके नए शब्द सीख सकते हो”। उस समय तक पत्रकारिता आजके समान दूषित नहीं हो गयी थी जैसे आज हिन्दीके समाचार पत्रमें हिन्दी शब्द अल्प प्रमाण और विदेशी भाषाओंके (उर्दू, अरबी फारसी और अङ्ग्रेज़ी ) शब्द अधिक प्रमाणमें दिखाई देते   हैं।
मैं बचपनसे ही अपने पितासे खुलकर अपनी शंकाएं व्यक्त करती थी और वे उसका समाधान बडे प्रेमसे करते थे और करते भी कैसे नहीं मैं उनकी लाडो रानी जो थी। सच कहूं तो मेरे व्यक्तित्वको संवारनेमें मेरे माता –पिताका अत्यधिक योगदान रहा है। मैने अपने पिताजीसे कहा कि यदि ऐसा है तो आप मुझे हिन्दी माध्यममें क्यो नहीं पढाते।  उन्होंने कहा “अवश्य पढाता; परंतु यहां हिन्दी माध्यमका एक भी अच्छा विद्यालय नहीं है और मैं चाहता हूं कि आपको सर्वोत्तम स्तरकी शिक्षा मिले और एक बात है आपको भविष्यमें कभी ऐसा न लगे कि यदि मुझे अङ्ग्रेज़ी आती तो मैं यह भी कर सकती थी अतः यह भाषा जानना आवश्यक है अन्यथा इस भाषामें कुछ नहीं रखा” । आगे उन्होंने कहा “जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा और संस्कृतका सम्मान नहीं कर सकता वह किसी भी भाषाका सम्मान नहीं कर सकता”।

हमारे घरमें हम अङ्ग्रेज़ीमें एक दूसरेसे बात नहीं कर सकते थे और हमारी मातृभाषा, मैथिलीमें ही हम बातें करते थे। हमें कोई भी अङ्ग्रेज़ी उपन्यास भी पढनेकी अनुमति नहीं थी, पिताजीका स्पष्ट रूपसे कहना था कि इससे बुद्धि भ्रष्ट और तमोगुणी हो जाती है। एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण होनेके कारण उनकी कर्मकांडपर अच्छी पकड थी और इसलिए बचपनमें हमें उन्होंने अनेक श्लोक सिखाये थे जिसका आज मुझे लाभ हो रहा है। इस प्रकार उन्होंने हमारे अंदर राष्ट्रनिष्ठा, स्वभाषाभिमानके संस्कार बचपनमें ही डाल दिये। संस्कृतके बारेमें उनका कहना था कि इससे हमारी बुद्धि तीक्ष्ण होती है और वाणी ओजस्वी होती है अतः प्रतिदिन पूजा करनेसे पूर्व उनकेद्वारा लिखित श्लोक हमें देवस्तुतिके रूपमें पढने होते थे। इस प्रकार हिन्दी और संस्कृत भाषाकी अल्प प्रमाणमें पकड मेरे पिताकी प्राथमिक देन है और हमारे श्रीगुरुने अपनी कृपा आशीषसे उसे प्रगल्भ किया है अन्यथा अधिकांश अंगेजी मध्यममें पढनेवालोंकी लिखी हिन्दी यदि आप पढ लें तो माथेपर हाथ रख बैठ जाएंंगे -तनुजा ठाकुर



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