गीता सार – मनुष्य कर्मोंके चक्रव्युहमें अज्ञानतावश मोहित हो जाता है |


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नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ – श्रीमदभगवद्गीता (५:१५)
अर्थ : सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसीके पाप कर्मको और न किसीके शुभकर्मको ही ग्रहण करते हैं, किन्तु अज्ञानद्वारा ज्ञान ढंका हुआ है, उसीसे सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं |

भावार्थ : परमेश्वर यद्यपि इस सृष्टिके रचियता हैं तथापि वे साक्षी भावसे सब देखते हैं अर्थात वे किसीके सुखसे सुखी या किसीके दुखसे दुखी नहीं होते हैं और न ही स्वयंको उसमें लिप्त करते हैं, वे स्वयंभू, सर्वज्ञ एवं स्वयंमें एक परिपूर्ण तत्त्व हैं अतः शुभ और अशुभ कर्म उन्हींसे आरंभ होकर उन्हींमें विलीन हो जाता है और ऐसे कर्मोंके कर्ताकी भी अंतमें यही गति होती है |
मनुष्य कर्मोंके चक्रव्युहमें अज्ञानतावश मोहित हो जाता है | ईश्वरने सृष्टिका निर्माण अपने तत्त्वोंसे ही किया है परंतु अपनी लीला अनुरूप उसपर माया –मोह रूपी अज्ञानताका आवरण देकर उसे गुप्त कर दिया है जिससे कि पुण्यवान, भाग्यवान, बुद्धिमान व्यक्ति अपनी साधनाके माध्यमसे उस आवरणको नष्ट कर मुक्त हो जाये और शेष इस सृष्टिके विद्यमान रहने तक इसमें कोल्हुके बैलके समान जन्म मृत्युके चक्रमें घूमता रहे ! –

-तनुजा ठाकुर



One response to “गीता सार – मनुष्य कर्मोंके चक्रव्युहमें अज्ञानतावश मोहित हो जाता है |”

  1. बाल कृष्ण शर्मा says:

    जिस तरह हमारे देश (लोकतंत्र) में सारे काम राष्ट्रपति (कार्यकारी अध्यक्ष) के नाम पर होते किये जाते हैं उसी तरह मनुष्य यदि सारे काम ईश्वर के नाम पर या उसे समर्पित करके तटस्थ भाव सइ करे तो शायद जन्म मरण स3 मुक्त होजाए लेकिन कभी कोई अच्छा कार्य या किसी केपर याआपका कर्ज रह जाता है तो भी मनुष्य को दोबारा जन्म लेना पडेगा ? ऐसे कर्मों के फल से कैसे बचा जया सकता है ?

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