हिन्दू धर्ममें 33 कोटि देवी-देवता क्यों ?


33 koti devi devta

धर्मका मूलभूत सिद्धांत है जितने व्यक्ति उतनी प्रकृत्ति उतने साधना मार्ग अर्थात चूंकि इस पृथ्वीपर प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरेसे भिन्न होता है अतः प्रत्येककी साधना पद्धति एवं योगमार्ग भिन्न होता है।  प्रत्येक व्यक्तिका संचित, क्रियमाण कर्म, उसका प्रारब्ध, उसके पंचतत्त्व, पञ्च महाभूत एवं स्वभाव सब कुछ भिन्न होता है अतः उसकी साधनापद्धति भी भिन्न होती है । एक परिवारमें माता -पिता चार बच्चोंको एक जैसा लालन- पालन करते हैं परन्तु तब भी सभी बच्चे एक दुसरेसे भिन्न होते है उसी प्रकार संसारका प्रत्येक प्राणी भिन्न होता है !

यदि हम किसी वैद्यके पास जाएंं और वह वैद्य भिन्न रोगसे पीडित प्रत्येक रोगीको एक ही औषधि दे तो अगली बार कोई रोगी उसके पास पुनः नहीं जायेगा।  हम भी पुनः पुनः जन्म-मरणके रोगसे पीडित हैं और इससे शीघ्रतासे निकलने हेतु योग्य सधाना मार्ग एवं साधना पद्धति अति आवश्यक है ।

साम्प्रदायिक साधनामें सभीको एक ही प्रकारकी साधना बतायी जाती है फलस्वरूप अध्यात्मिक प्रगति नहीं के बराबर हो पाती है और सांप्रदायिक साधना करनेके कारण मेरे गुरु श्रेष्ठ, मेरा संप्रदाय श्रेष्ठ और मेरे उपास्य श्रेष्ठकी संकुचित मनोवृत्ति रुपी भयंकर रोगसे साधक पीड़ित हो जाते हैं ! मैंने कई सम्प्रदायोंकी स्थिति जाकर देखी है, वहां अब कोई संत नहीं, संतोंके लिखे ग्रंथोंको समझाने वाले योग्य उन्नत नहीं, संत है ही नहीं तो साधककी मनोवृत्ति इतनी संकुचित होती है कि पूछिए मत ! जब तक संप्रदायके संस्थापक जीवित रहते हैं तो सब एक ही प्रकारकी साधना करें तो भी साधकोंकी प्रगति होती है क्योंकि उस मंत्रमें संतकी संकल्प शक्ति समाहित होती है परन्तु संतके देह त्यागके पश्चात यदि उनकी गद्दीपर बैठनेवाले शिष्य संत पदपर नहीं हो तो उस संप्रदायसे जुड़े साधकोंकी शीघ्र गतिसे आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो पाती, मात्र साधना करने की मानसिक तैयारी हो पाती है यह एक कटु सत्य है | कई राज्योंमें तो संप्रदायसे जुड़ना वंशानुगत हो गया है !!!!
तो फिर संत संप्रदायकी स्थापना क्यों करते हैं ?

गुरुगोबिंद सिंहजीने इस बारेमें बडा सटीक कहा है

आज्ञा भाई अकाल की तभी चलायो पंथ ।
सब सिक्खन को हुकम है गुरु मान्यो ग्रन्थ ।।
अर्थात्: परमेश्वरके आदेशके कारण कालानुसार संतोंको संप्रदायकी स्थापना करनी पड़ती है परन्तु यह सांप्रदायिक कट्टरता कुछ समय पश्चात् सनातन धर्मपर ही अघात करने लगता है ऐसे में उनके अनुयायी को अधोगति तो होना ही है !
अतः सांप्रदायिक साधनाकी अपेक्षा सनातन धर्म अनुसार अपने कुलदेवताकी आराधना अधिक श्रेष्ठ होता है ।कुलदेवताकी साधना करनेसे हमारे पिंडमें जिस तत्त्वकी कमी होती है उस तत्त्वकी पूर्ति 30% तक होनेपर श्रीगुरुका हमारे जीवनमें पदार्पण हो जाता है और हमारी आगेकी आध्यात्मिक प्रगतिके लिए वे उत्तरदायी हो जाते हैं ।

३३ कोटि देवी देवता ३३ कोटि तत्त्व है, हमें जिस तत्त्वकी आवश्यकता हो यदि हम उसी तत्त्वकी उपासना करें तो हमारी आध्यात्मिक प्रगति अति शीघ्र होती है, जैसे यदि हमारे पिंडमें शक्ति तत्त्वकी कमी हो और उसमे भी विशेषकर भवानी तत्व का, तो यदि हम ‘श्री भवानी देव्यै नमः’ का जप करें या उनकी आराधना करें, तो हमारी अध्यांतिक प्रगति शीघ्र हो जाती है और इसी कारण ईश्वर हमें उस कुलमें जन्म देते हैं जिस कुलकी देवी भवानी मांं हो । ध्यानमें हमारी आध्यात्मिक प्रगति अर्थात् पिंडसे ब्रह्मांड तककी यात्रा होती है जब पिंडमें ब्रह्मांडके सारे तत्त्व आ जाते है तो हमारी आध्यात्मिक यात्रा पूर्ण हो जाती है । अर्थात् ३३ कोटी देवी देवता वास्तविक स्वरूपमें वैदिक सनातन धर्मके उच्च कोटीके प्रगत अध्यात्मशास्त्रका द्योतक है और शीघ्र आध्यात्मिक प्रगतिका एक सहज साधन है जिसे हमारे ऋषि महर्षिने शोध कर हम तक पहुंचाया है, यह ध्यानमें रखें – तनुजा ठाकुर



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