अंगदानसे सम्बन्धित शंका समाधान


  प्रश्न : मैं पिछले बीस वर्षोंसे इटलीमें रह रही हूं, मैंने यहां अंगदानको अत्यधिक प्रचलित देखा, इसलिए यहांके लोगोंके मानवतावादी दृष्टिकोणसे प्रभावित होकर मृत्यु उपरान्त अपने अंगोंको दान करने हेतु एक चिकित्सालयमें अपना नाम पंजीकृत कराया है; किन्तु आपके यूट्यूबपर अनिष्ट शक्तियोंसे सम्बन्धित प्रवचनोंको सुननेके पश्चात् मैं द्वन्द्वमें फंस गई हूं; क्योंकि मुझे लगा कि कहीं इस दानसे मेरी मृत्यु उपरान्तकी यात्रापर कोई अनिष्ट प्रभाव तो नहीं पडेगा; अतः मेरी आपसे विनती है कि कृपया इस सम्बन्धमें योग्य आध्यात्मिक दृष्टिकोणका विवेचन कर हमारा मार्गदर्शन करें; क्योंकि यदि इससे हमें कोई आध्यत्मिक हानि होगी तो मैं अपना नाम उस चिकित्सालयसे निरस्त करना चाहूंगी ! – मोनिशा कौर, रोम, इटली

उत्तर : इसप्रकारके अंगदानसे सम्बन्धित अनेक प्रश्न देश-विदेशके अनेक श्रोता एवं हमारे लेखोंके पाठकगण पूछ चुके हैं; अतः आज इस लेखको शंका समाधान विषय अन्तर्गत ले रही हूं ।

आजकल ‘अंगदान-जन अभियान’, ‘अंगदान-जीवन का महादान, उससे होता महाकल्याण’, ऐसे उद्धरणोंसे अंगदानका प्रचार किया जाता है ।

दान शब्दका शाब्दिक अर्थ है – देनेकी क्रिया । दान शब्द अति महनीय शब्द है । ‘देना’ शब्द परम सन्तुष्टि प्रदान करता है एवं इससे आनन्दकी अनुभूति होती है। हमारे शास्त्रोंमें दानके विविध स्वरूप बताए गए हैं । धनदान, अन्नदान, वस्त्रदान, क्षमादान, अभयदान,विद्यादान, धर्मदान, प्राणदान इत्यादि ।

इन सबमें धर्मदान सर्वश्रेष्ठ दान है; किन्तु दुःखकी बात है कि आज भारतमें हिन्दुओंको धर्मकी शिक्षा नहीं दी जाती है; अतः वे पाश्चात्योंकी अदूरदर्शी, अवैज्ञानिक एवं अध्यात्मशास्त्रविरहित विचारधारासे प्रभावित होकर उनकेद्वारा कुछ अनुचित तथ्योंका पोषण करने लगे हैं । पाश्चात्यावादसे प्रभावित कुछ भारतीय अंगदानका मुखर होकर प्रचार-प्रसार करते हुए कहते हैं कि अपना अंगदान देना किसी मानवके प्रति बहुत बडा उपकार है, अंग दानसे जीवनदान मिलता है; अतः यह सभी दानोंमें सर्वोपरि है; किन्तु यह दृष्टिकोण अध्यात्मिक दृष्टिसे अयोग्य है । वे अपने इस वक्तव्यका समर्थन करने हेतु कहते हैं कि अंगदान करना बहुत बडा पुण्यकार्य है एवं प्राचीन कालसे भारतमें अंगदान देनेकी परम्परा रही है जबकि ऐसा नहीं है । वे अंगदानके विषयमें लोगोंको अपनी ओर आकृष्ट कर, उन्हें ऐसा करने हेतु प्रोत्साहित करनेके लिए लोगोंको भ्रमित करते हुए शास्त्रोंमें बताए गए, प्राणदानके कुछ उदाहरणोंका अनुचित सन्दर्भ देते हुए कहते हैं कि प्राचीन कालमें कई ऐसे महादानी हुए हैं, जिन्होंने प्राणदान दिए हैं जैसे जब वृतासुरने देवताओंको अत्यन्त कष्ट देकर स्वर्गमें उनका रहना कठिन बना दिया था तो ब्रह्माजीके निर्देशानुसार इन्द्रादि देवताओंने ब्रह्मवेत्ता महर्षि दधीचिसे उनकी देह दानमें लेकर उनकी अस्थियों अर्थात् हड्डियोंसे विश्वकर्माजीद्वारा वज्र बनवाकर वृतासुरका वध किया । लोककल्याण हेतु दधीचिने देहदान दिया और फलतः दधीचि अमर हो गए । इस कथाका आधार देते हुए अंगदानके प्रचारक कहते हैं कि यदि महर्षि दधीचि अपने जीवित शरीरका दान लोककल्याण हेतु कर सकते हैं तो मरणोपरान्त यदि हम अपना अंगदान कर दें और किसीकी भलाई हो तो इसमें अनुचित क्या है ?

इसीप्रकार वे पूर्व कालके राजा शिविकी कथाका भी उदाहरण देते हुए कहते हैं कि एक कपोतके (कबूतरके) प्राण बचाने हेतु उन्होंने अपने जीवित शरीरको गिद्धके लिए परोस दिया था । उनका त्याग देखकर परीक्षा लेने आए ‘कबूतर’के रूपमें सूर्य और ‘गिद्ध’के रूपमें इन्द्रने अपने वास्तविक रूपमें प्रकट हो कर राजा शिविकी स्तुति की; अतः जिस देशमें ‘कबूतर’के प्राण बचानेके लिए कोई राजा अपना शरीर दान कर सकता है, असुरोंसे रक्षण हेतु कोई महर्षि अपना देहदान कर सकता है तो आप किसी मानवके हित हेतु अंगदान या देहदान क्यों नहीं करते हैं ? किन्तु ऐसे सभी लोगोंको हम यह बताना चाहेंगे कि हमारी संस्कृतिमें अंगदानकी प्रथा नहीं रही है, समष्टि हितार्थ प्राणदान देना एवं समष्टि हितार्थ भावनावश अंगदान देना दोनोंमें आकाश पातालका अन्तर है । वस्तुतः पाश्चात्यवादके प्रसारके कारण ‘अंगदान’ एक सामान्य प्रथा बन गई है और आधुनिक चिकित्सा विज्ञानद्वारा व्यापक रूपसे इसे प्रोत्साहित किया जा रहा है । अंग प्रत्यारोपण शल्य चिकित्साकी आरम्भिक तथा विशेष रूपसे वर्ष १९६० के दशक एवं उसके पश्चातकी सफलताओंके कारण सम्पूर्ण विश्वमें हो रहे प्रत्यारोपणकी संख्यामें शीघ्रतासे वृद्धि हुई है । ‘नेशनल ऑर्गन डोनर रजिस्ट्री’ (राष्ट्रीय अंगदाता पंजीयन) उन लोगोंकी सूचीका सम्पोषित करता है, जिन्होंने मृत्यु पश्चात (मृत्युकी स्थिति में) अपने अंगदान करनेके लिए सहमति दी है एवं आज अनेक देशोंने अंगदानके इस प्रपत्रपर (फॉर्म) ‘ऑप्ट आउट’ (बाहर होने की) नीतियोंको अंगीकृत कर लिया है । इन सबको देखते हुए आज इस विषयके सन्दर्भमें आध्यात्मिक दृष्टिकोण जानना सभीके लिए अति आवश्यक हो गया है ।

हमारे प्रत्येक कर्ममें लेन-देन निर्माण करनेकी क्षमता होती है । कर्म जो दूसरोंको सुख दे वह पुण्य है और फलस्वरूप हमें सुख मिलता है तथा जो कर्म दूसरोंको दु:ख देते हैं, उसके फलस्वरूप हमें भी दु:ख ही मिलता है ।

अंगदान करनेसे किसीका जीवन बचनेके कारण ऐसा प्रतीत होता है कि उससे हमें पुण्य प्राप्त होगा । परन्तु सदैव यही हो, यह आवश्यक नहीं है । हमारे आध्यात्मिक शोधद्वारा यह देखा गया है कि जब हम अंगदान करते हैं तब हम लेन-देन निर्माण करते हैं और अंग प्राप्त होनेवाले व्यक्तिके कर्मोंद्वारा संचित पाप तथा पुण्यमें सहभागी होते हैं । इसका अर्थ यह है कि दुष्ट व्यक्तिको अंगदान करनेके फलस्वरूप हम पाप अर्जित कर सकते हैं । यदि परोपकारकी भावनासे हम किसी अंगको दान करनेकी इच्छा रखते हैं तब इस बातको समझना महत्त्वपूर्ण है कि उस कर्मद्वारा हम जो पुण्य संचित करते हैं, वह हमें जन्म और मृत्युके चक्रमें उलझा सकता है । जैसा कि आपको पूर्वके सत्संगोंमें भी बता चुकी हूं कि पाप और पुण्य दोनों ही आध्यात्मिक यात्रामें बाधक होते हैं इसलिए पापको अध्यात्मशास्त्रीय भाषामें पापात्मक पाप एवं पुण्यको पुण्यात्मक पाप कहा गया है इसप्रकार एक लोहेकी बेडी है तो दूसरी सोनेकी अर्थात् दोनों ही बेडियां ही हैं; अतः दोनों ही संचित निर्माण करती हैं, जिन्हें भोगने हेतु हमें ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ के चक्रव्यूहमें फंसना पडता है ।

मृतक व्यक्तिसे अंग प्राप्त करनेसे क्या हो सकता है ?

कई बार मृतकसे अंगोंकी प्राप्ति होती है । मृत्युके उपरान्त हमारा क्या होता है ? यह हमने कुछ सत्संगोंमें विस्तारसे बताया ही है तथापि संक्षेपमें यह जान लें कि सामान्य व्यक्तिकी मृत्युके उपरान्त, उसके लिंगदेहकी भौतिक शरीर तथा सम्पत्तिके प्रति आसक्ति तत्काल न्यून नहीं होती । इसी कारण उसका सूक्ष्म-शरीर एक वर्ष अथवा अधिक समय तक उसके दान किए अंगों सहित, स्थूल-शरीर और उसकी पूर्व सम्पत्तिके आसपास मण्डरा सकता है ।

जब लिंगदेह अपने प्रत्यारोपित अंगोंके समीप आता है, तब दो घटनाएं हो सकती हैं । पहली, मृत्यु उपरान्त अपनी आगेकी यात्रामें न बढनेके कारण उस पर अनिष्ट शक्तियां सहजतासे आक्रमण कर सकती हैं । दूसरी, लिंगदेहको प्रभावित करनेवाली कोई भी अनिष्ट शक्ति अंगोंको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिमें संचारित हो सकती है । यह अंगदान प्राप्तकर्ता व्यक्तिके चारों ओर काला आवरण बढा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप उस व्यक्तिके भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक कष्टोंमें वृद्धि हो सकती है । इसके साथ-साथ, मृत्युके समय अंग नकारात्मक स्पन्दनोंसे आवेशित हो जाता है; क्योंकि सामान्य व्यक्तिकी मृत्यु मुख्यत: आध्यात्मिक रूपसे नकारात्मक स्पन्दनोंसे आवेशित होती है । ऐसे नकारात्मक स्पन्दनोंसे आवेशित अंगोंको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिको, उनके स्पन्दनोंको आत्मसात् करनेके लिए बाध्य करती है और उसके चारों ओर काले आवरणमें भी वृद्धि करती है । मृत्यु उपरान्त किसी व्यक्तिके अन्तिम दर्शन या शवयात्रामें सहभागी होते समय भगवानके नामजप करनेका विधान है जिससे मृत व्यक्तिके लिंगदेहसे वहां उपस्थित व्यक्तिको कष्ट न हो, ऐसी स्थितिमें सर्व सामान्य मृत व्यक्तिके अंगको ग्रहण करना आध्यात्मिक दृष्टिसे कैसे उचित हो सकता है ? किंचित सोचें !

आज अनेक देशोंमें अंगदान देनेवाले व्यक्तिके लिए कुछ नियम बनाए गए हैं; किन्तु यह सब मात्र बौद्धिक दृष्टिसे स्वस्थ शरीर एवं मनके ऊपर बनाए गए नियमोंतक ही सीमित हैं । वस्तुत: आध्यात्मिक दृष्टिसे इसके लाभ एवं हानिके विषयमें सम्पूर्ण विश्वमें वर्तमानकालमें अज्ञानता है; अतः आज सम्पूर्ण विश्वको धर्म और अध्यात्म सिखानेकी नितान्त आवश्यकता है ।

इसप्रकार आजके लेखसे यह स्पष्ट हो गया होगा कि अंग दानके अवांछित आध्यात्मिक प्रभाव, उनके सकारात्मक परिणामोंपर अधिक भारी है; अतः सामान्यत: साधारण व्यक्तिके लिए अंगदान न करना ही श्रेष्ठ होगा । कुछ स्थितियों जैसे कि निकट सम्बन्धीके साथ, व्यक्तिको अपने परिवारके सदस्यके प्रति अपना कर्तव्य बाध्य कर सकता है अन्यथा हम इसे टाल सकते हैं ।

अध्यात्मका सूक्ष्म पक्ष अंगदान सहित हमारे जीवनके सभी पक्षोंको प्रभावित करता है; अतः प्रत्येक परिप्रेक्ष्यमें हमें आध्यात्मिक पक्षका अवश्य ही विचार कर योग्य निर्णय लेना चाहिए जिससे हमारा यह जन्म, मृत्यु उपरान्तकी यात्रा एवं अगला जन्म आध्यात्मिक उन्नतिकी दृष्टिसे पोषक सिद्ध हो सके ।



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