१. जर्मनीमें कई दशकोंसे निम्नलिखित शिक्षण संस्थाओंमें संस्कृतका अध्ययन हो रहा है –
अ. हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय
आ. लाइपजिग विश्वविद्यालय
इ. हम्बोलैट विश्वविद्यालय
ई. बॉन विश्वविद्यालय
२. जर्मनीमें ख्रिस्ताब्द १८०० में विलियम जोंसने प्राचीन भारतके प्रसिद्ध कवि कालीदासद्वारा लिखित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’का जर्मन भाषामें अनुवाद किया था, तबसे वहांके लोगोंमें संस्कृत भाषाके प्रति रूचि बढी है ।
३. जर्मनीमें तो यह बात अत्यधिक गहराईतक स्वीकार की जा चुकी है कि जर्मन भाषा, संस्कृतकी ही देन है और जर्मन लोग बडे गर्वसे कहते हैं कि वे आर्य हैं, अर्थात हम भारतवासियोंके ही जैसे हैं, हमारे वंशज भारतवासी ही रहे हैं ।
४. जर्मनीके शासकवर्ग एवं वैज्ञानिकोंका संस्कृतके प्रति इतना प्रेम है कि उन्होंने अपनी विमानसेवाका (एयरलाइन्सका) नाम संस्कृतके शब्दोंसे बना लिया । उनकी विमानसेवा ‘लुफ्तांसा’के नामका मूल उद्गम संस्कृत शब्द लुप्त-हंसासे हुआ है, अर्थात जो हंस लुप्त हो गए ।
५. भारतके बाहर ‘जर्मनी’ विश्वका प्रथम ऐसा देश है, जिसने अपना एक विश्वविद्यालय संस्कृत साहित्यके लिए समर्पित किया हुआ है और जिसने भारतके बाहर, भारतकी विद्याको सीखने और सिखानेकी परम्परा आरम्भ की है ।
६. हमारे महर्षि चरकने चिकित्सा विज्ञानके अनेक पक्षोंको सम्पूर्ण जगतको सिखाया । चरकके नामपर जर्मनीके शासनने एक विभाग बनाया है और उसका नाम ही ‘चरकोलॉजी’ रखा है ।
७. जर्मनका शासन (सरकार) सबसे अधिक व्यय भारतीय विद्याओंकी शोधमें करता है । अंग्रेजीमें उसे ‘इण्डोलॉजी’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘भारतीय विद्याएं’ । भारतीय विद्याओंपर भारतके बाहर सबसे अधिक शोध जर्मनीमें हो रहे हैं ।
८. जर्मनीके वैज्ञानिकोंके अनुसार, संस्कृतके ग्रन्थोंमें ज्ञानका अपार भण्डार है । वे संस्कृतको सबसे प्राचीन भाषा मानते हैं और उसके ग्रन्थोंमें निहित गूढ रहस्योंको सीखनेका प्रयास भी कर रहे हैं जिससे वे देशको प्रगतिके पथपर ले जा सकें ।
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