उत्तम सन्तति हेतु गर्भाधान संस्कारका महत्त्व (भाग-२)


आजकल कामवासनासे ग्रस्त मनुष्य गर्भाधान संस्कारपर ध्यान नहीं देता है, जिसके चलते उसकी सन्तानका भविष्य अनिश्‍चित या अन्धकारमें ही रहता है । वस्तुतः यह संस्कार सबसे महत्त्वपूर्ण होता है । विवाहके पश्चात पति और पत्नीको मिलकर अपनी भावी सन्ततिके विषयमें सोच-विचार करना चाहिए । बच्चेके जन्मके पहले स्त्री और पुरुषको अपनी शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्यको ठीक कर लेना चाहिए । साथ ही यदि आध्यात्मिक कष्टकी तीव्रता अधिक हो तो योग्य साधना एवं सर्व आध्यात्मिक उपचारके माध्यमसे अपने कष्टको न्यून करना चाहिए । इस हेतु किसी अध्यात्मविदकी या उन्नतकी भी सहायता ली जा सकती है ।
सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि बताए गए नियमों, तिथि, नक्षत्र आदिके अनुसार ही बालकके जन्म हेतु समागम करना चाहिए । यह बहुत ही पवित्र कर्म होता है; अतः इसे मात्र कामवासनाकी तृप्तिका माध्यम नहीं बनाना चाहिए; क्योंकि विवेकशील प्राणीके सृजनकी एक सुन्दर दैवी प्रक्रिया है जिसका उत्तरदायित्व गृहस्थको ईश्वरने सौंपा है । अयोग्य सन्तान उत्पन्न करना, पृथ्वीका भूभार बढाने समान होता है । कुसंस्कारी सन्तान कुलकी मान-मर्यादाका तो नाश करती ही है साथ ही वह समाज, राष्ट्र और मानव जाति के लिए भी एक कण्टक होती है ।
इसलिए सन्तति हेतु इच्छुक दम्पतिको गर्भाधान संस्कारका अच्छेसे अभ्यास करना चाहिए । इस हेतु किसी ज्योतिषीसे शुभ कालकी जानकारी ली जा सकती है ।
शास्त्र कहता है कि
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ ।
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः ॥
अर्थात : स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टासे संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभावका होता है ।
अतः इस संस्कारके महत्त्वको समझना अति आवश्यक है ।



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सम्बन्धित लेख


विडियो

© 2021. Vedic Upasna. All rights reserved. Origin IT Solution