कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि कुछ पंथके लोग मृत्यु उपरांतकी यात्रा को नहीं मानते या पुनर्जन्म को नहीं मानते अतः पितरों के लिए वे कुछ भी नहीं करते और उन्हें कष्ट भी नहीं होता है ऐसा क्यों ? सर्वप्रथम तो यह जान लें की अध्यात्म शास्त्र संपूर्ण प्राणी मात्रके लिए समान होता है | जैसे पृथ्वी सूर्यकी परिक्रमा करती है यह शास्त्र जबसे सृष्टि है तबसे सत्य एवं नित्य है | कुछ शताब्दी पूर्व तक कुछ पाश्चात्य देशके लोगोंकी मान्यता इसके विपरीत थी तो मान्यताके विपरीत होनेसे सत्य नहीं परिवर्तित होता सत्य, सत्य ही रहने वाला है चाहे उसे कोई माने या न माने | उसी प्रकार जिन सभ्यताओंमें, पंथोंमें मृत्यु उपरांतकी यात्राको मान्यता नहीं है उनका अध्यात्म अत्यंत ही अविकसित स्तिथिमें है यह ध्यान में रखें | सूक्ष्म जगतके ७०% अनिष्ट शक्ति अहिन्दु हैं यह जान लें |
हमारे ऋषि, मुनि, तपस्वी उच्च कोटिके आध्यात्मिक शोधकर्ता थे उन्हें पता था कि मानव शरीर न रहनेपर भी उसका अस्तित्व रहता है अतः उन्होंने अपनी अध्यात्मिक क्षमताके बलपर मानव कल्याण हेतु अध्यात्मिक प्रक्रिया विकसित की जिसे हम धार्मिक रीति या धर्माचरण कहते हैं | ऐसे सूक्ष्म एवं गूढ विषयको समझनेके लिए साधना अर्थात तपोबल चाहिए | जिन पंथोंमें पितृकर्म जैसे विषयकी मान्यता नहीं उनके यहां भी पितर अशांत होते हैं और उन्हें कष्ट देते हैं | बाह्य रूपमें वे समृद्ध दिख सकते हैं परंतु खरे अर्थमें देवत्वसे उनका दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता उनके जीवनमें ऐसे असाध्य बीमारी होती है कि कितने ही रोगके नाम ढूँढनेमें ही उनके वैज्ञानिकको कई वर्ष लग जाते हैं | उनका पारिवारिक और कौटुम्बिक जीवन पशु समान या उससे भी निम्न कोटिका होता है | समलैंगिकता, एड्स जैसे कई भयावह और समाजके विनाशकारी महारोग ऐसी ही सभ्यताओंकी देन है यह न भूलें | और आज भी इन पंथों और सभ्यताओंके माननेवाले भारतमें शांति ढूंढते हुए आते हैं | अतः वैदिक संस्कृति अनुसार बताये हुए आचरण अध्यात्म विज्ञानं सम्मत हैं और इन आचरणसे ही मानव का कल्याण एवं उत्थान संभव है | – पूज्या तनुजा ठाकुर
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