आज होनेवाले अनेक मनोरोगोंका मूल कारण आध्यात्मिक है !


हमारे मानपुर आश्रममें एक महिला श्रमिक सेवा करती है । उसे जब मैंने पहली बार देखा था तो वे एक विक्षिप्त समान दिख रही थी । वस्तुतः वह एक किसान परिवारसे है और उसका भाई हमारे यहां श्रमिकके रूपमें कार्य कर रहा था । हमें आश्रमके लिए गेहूं क्रय करना था तो उसने बताया कि वह गेहूं विक्रय कर रहा है तो हम उसके गेंहू देखने उसके घर गए थे । तभी उसकी बहन जो आज श्रमिकके रूपमें सेवा करती है, उसे पहली बार देखा था । मैंने उसकी स्थिति देखकर उसके भाईसे पूछा कि उसे क्या हुआ है ?
उसने कहा “उसे कोई मनोरोग है और वह पिछले अनेक वर्षसे औषधि लेती है और प्रत्येक माह कुछ दिवस वह बोलती नहीं है, कुछ खाती नहीं है, इसके पश्चात उसे चिकित्सकके पास ले जाना पडता है, जहां वे उसे सुई और औषधि देते हैं तो वे एक सप्ताहमें सामान्य हो पाती है ।”
उसे देखती ही समझ गई कि उसे अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट है और वह सात्त्विक भी है । मैंने उसके भाईसे उसे आश्रममें सेवा हेतु लानेके लिए कहा । वह तो अपनी बहनको नहीं लाया; किन्तु कुछ माह पश्चात वह एक और स्त्री श्रमिकके माध्यमसे आश्रममें आकर सेवा करने लगी ।
मैंने देखा कि वह बहुत एकाग्रता और प्रेमसे सेवा करती है और एक मिनिटका भी समय व्यर्थ नहीं करती है । मेरा निरीक्षण सही था । उसे अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट था; किन्तु उसके सेवाभावसे उसपर आध्यात्मिकउपचार हुआ और दस दिवसमें ही मुझे उसका सूक्ष्म काला आवरण कम होते दिखाई दिया । मैंने उसके घरवालोंसे कहा था कि इस बार यदि उसे पुनः कोई मानसिक कष्ट हो तो वे चिकित्सकके पास न जाएं, मात्र मुझे सूचना दें; किन्तु गुरुकृपासे उसे कोई मानसिक स्तरका कष्ट नहीं हुआ । मात्र अमावस्याके दिवस वह अपने घरमें मूर्छित हो गई और उसका भाई चिन्तित होकर पुनः उसे उसी चिकित्सकके पास ले गया; किन्तु उन्होंने कहा कि अशक्तताके कारण ऐसा हुआ है और वह दो दिवसमें ठीक हो गई । मैं अमावस्या और पूर्णिमा उसपर ध्यान दे रही थी और मैंने पाया कि पूर्णिमाको उसे पुनः मानसिक कष्ट तो नहीं हुआ; किन्तु अतिसार (दस्त) हो गया । और वह दो दिवसमें ठीक होकर पुनः सेवा हेतु आ गई । अब उसे चार माह हो गए हैं । वह स्वस्थ है और अब उसमें इतना परिवर्तन है कि कोई कह ही नहीं सकता है कि ये वही महिला है । वह प्रसन्न रहती है, नियमित सेवा हेतु आती है और अब वह मनोरोगवाली कोई भी औषधि नहीं लेती है ।
वस्तुतः उसे पितृदोषके कारण कष्ट था । अतृप्त पितरोंने उसके वैवाहिक जीवनको कष्ट देकर भंग कर दिया था ।
प्रेम, भाव एवं नियमित सेवासे उसके पितरोंको गति मिल गई और वह स्वस्थ हो गई । वस्तुतः उसे कोई मनोरोग था ही नहीं, मात्र उसकी देह भूतावेशित थी । इसीलिए मैं कहती हूं कि ये जो भिन्न प्रकारके मनोरोग हैं, ये सब अनिष्ट शक्तियोंके कारण होते हैं और सेवा करने और दोष व अहं निर्मूलनसे ऐसे कष्ट सहज ही दूर हो सकते हैं । इससे आश्रममें आकर सेवा करनेका महत्त्व भी समझमें आता है ।



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