आश्रम व्यवस्था (भाग – २)


आश्रम जीवनका मुख्य उद्देश्य होता है, साधनाकर ईश्वरप्राप्ति करना ! हमारे मनीषियोंने जीवनकी चार अवस्थाओंको आश्रम बताकर यह सन्देश दिया कि जीवनके प्रत्येक पडावपर हमारा मुख्य उद्देश्य ईश्वरकी प्राप्ति ही होनी चाहिए; इसलिए ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रममें भी साधनाके संस्कार पुष्ट हों, इसप्रकारकी व्यवस्था उन्होंने बनाई | ऐसी व्यवस्था होनेके कारण समाजके प्रत्येक घटकमें सुन्दर सामंजस्य था और सभी आश्रम एक दूसरेके पूरक थे | जैसे गृहस्थ आश्रम, तीनों अन्य आश्रमोंका पालन करते थे और सन्यासीवृन्द, जो साधनाकर उच्च प्रज्ञा शक्तिको प्राप्त कर चुके होते थे वे गृहस्थको संसारमें रहते हुए धर्मनिष्ठ एवं साधनारत कैसे रह सकते हैं ?, वह बताते थे !

वस्तुत: आश्रम मात्र दो ही हैं, एक ब्रह्मचर्य और दूसरा संन्यास; क्योंकि ये दोनों आश्रम ईश्वरप्राप्ति हेतु अधिक पूरक हैं किन्तु सृजनकी प्रक्रिया अखण्ड चले एवं जो जीव ब्रह्मचर्य आश्रमसे संन्यास आश्रममें नहीं जा सकते हैं उनके लिए गृहस्थ एवं वानप्रस्थ आश्रमकी व्यवस्था की गई; किन्तु इन दोनों ही आश्रमोंका मूल उद्देश्य था कि जीव अपने प्रारब्धको भोगते हुए, धर्मका आचरण करते हुए, अपनी इच्छाओंको पूर्ण करते हुए, अपनी साधनाको पुष्टकर संन्यासकी ओर प्रवृत हो ! किन्तु धर्मके ह्रास होनेके कारण वर्ण व्यवस्था समान आश्रम व्यवस्था भी अपने मूल स्वरूपको त्याग चुकी है !



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