पाश्चात्योंकी मानवतावादसे भी श्रेष्ठ है, भारतीय संस्कृतिका अध्यात्म !


tree worshipजुलाई २०१३ में मैं जर्मनी गयी थी, वहां वृन्दावनके एक पण्डितजी उस देशकी मानवतावादी दृष्टिकोणकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे । इसी क्रममें उन्होंने एक प्रसंग बताया । उन्होंने कहा “यहांके जैसा मानवतावाद पूरे विश्वमें कहीं नहीं है” और उन्होंने एक घटना सुनाई जो इस प्रकार थी –
“मैं जिस देवालयका (मन्दिरका) पूजारी हूं, उसका पुनर्निर्माणका कार्य पिछले एक वर्षसे चल रहा है । इसी क्रममें एक दिवस हमें प्रांगणके एक वृक्षको कटवाना था । मुझे किसीने बताया कि हमें उसे कटवाने हेतु शासकीय (सरकारी) अनुमति लेनी पडेगी । सारी कागदी (कागजी) प्रक्रिया पूर्ण करनेपर जब शासकीय (सरकारी) अधिकारी आए तो उन्होंने कहा कि आप अभी इस पेडको नहीं काट सकते हैं, जब पतझड आएगा तब इसे काट सकते हैं; क्योंकि अभी यदि किसी चिडियाने अण्डे दिये होंगे तो पेडके कटनेपर वे अण्डे नष्ट हो जाएंगे ! मैं यह सुनकर उनके मानवतावादी दृष्टिकोणके आगे नतमस्तक हो गया ।”
एक पुरोहितके मनमें इस प्रकारके दृष्टिकोण सुन, मुझे लगा उन्हें यह बताना आवश्यक है कि पाश्चात्योंके मानवतावादसे भारतीय संस्कृतिका  अध्यात्मका चिन्तन कितना सूक्ष्म है और मैंने उन्हें अपने जीवनमें घटित एक प्रसंग बताया, जो इस प्रकार है – “ख्रिस्ताब्द २००८ में मैं झारखण्डमें अपने पैतृक गांवमें एकान्तवासके लिए गई थी और वहीं दो वर्ष रही । इसे पहले मैं गांवमें कभी नहीं रही थी । माता-पिताके देहान्त पश्चात हमारा पैतृक निवास उपेक्षित पडा था और वहां कोई नहीं रहता था और इस कारण वहां आंगनके मध्यमें किसीने हमसे बिना पूछे एक चम्पाके फूलका पौधा लगा दिया था, जो अब एक छोटे वृक्षका रूप ले चुका था और छोटेसे आंगनमें उस कारण अडचन आने लगी थी । उसी मध्य घरके पुनर्निर्माणका कार्य भी चल रहा था तो मैंने सोचा कि इस वृक्षको कटवा देती हूं । मैंने घर बनानेवाले मिस्त्री और कारीगरसे कहा कि आपमेंसे कोई इस वृक्षको काट दें; परन्तु आश्चर्य, कोई भी उस छोटेसे वृक्षको काटनेको सिद्ध नहीं था ! मैंने उनसे पूछा कि आप क्यों नहीं काटेंगे ?, यह अडचन निर्माण कर रहा है और मैं स्वयं पेड पौधेसे प्रेम करती हूं, इसकी एक टहनी मैं बाहर लगा दूंगी । वे कहने लगे “हम इसे नहीं काट सकते हैं, इसमें देवताका वास है, इसे काटनेसे हमें पाप लगेगा !”  मैं उनके इस विचारको सुन आनन्दित हो गई; परन्तु उस वृक्षको तो कटवाना ही था; अतः मैंने कुछ मुसलमान मिस्त्री जो मेरे घर बनानेके कार्यमें संलग्न थे, उन्हें कहा, तो मेरे आश्चर्यका ठिकाना नहीं रहा, उनमें जो सबसे मुख्य मिस्त्री था, उसने कहा, “नहीं बिटिया, इसमें ब्रहमदेवता (एक प्रकारकी गौण क्षुद्र शक्ति) रहते हैं, हम नहीं काटेंगे !” मैंने उन्हें टटोलते हुए कहा, “परन्तु आपका धर्म तो यह सब मानता ही नहीं है”, तो वे कहने लगे वृक्षमें तो देवता बसते ही हैं, धर्म माने य न माने ।”  वास्तविकता यह है कि ये सारे मिस्त्री आजसे दो शतक पहले मुसलमनान बने हैं; अतः उनमें हिन्दू संस्कार अभी भी थोडे अंशमें विद्यमान है । इस प्रकार कोई भी उस वृक्षको काटने हेतु सिद्ध (तैयार) नहीं हुआ, मुझे यह जानकार आनन्द हुआ कि इसी कारण गांवमें आज भी हरियाली बची हुई है । अन्तमें मैंने उनसे पूछा कि इस वृक्षको काटनेका उपाय क्या है ?, “एकने कहा यदि कोई पहली कुल्हाडी चला दे तो हम उसे काट देंगे !”  मैंने कहा ऐसा क्यों ?, इससे क्या होगा तो उस मिस्त्रीने बडे भोलेपनसे कहा, “इस वृक्षको काटनेका पाप हमें नहीं लगेगा” और अन्तमें मैंने ही उस वृक्षसे क्षमा प्रार्थना मांगकर पहली कुल्हाडी चलाई; क्योंकि उसे काटना अति आवश्यक था । मुझे पेड –पौधेसे अत्यधिक लगाव है, जब गांवमें थी तब  जहां भी सम्भव होता पेड-पौधे, फूल-फलके वृक्ष लगवाती थी । सत्य तो यह है कि गांवमें भी पानी, बिलजी, इण्टरनेट इत्यादिकी सुविधाओंका अत्यधिक अभाव होते हुए भी वहांके प्राकृतिक सौन्दर्यके कारण मुझे गांव में रहना अच्छा लगा और मैं दो वर्ष रह पाई ।”
यह बतानेके पश्चात मैंने उस पण्डितजीको समझते हुए कहा “मानवतावादके आगे सनातनका अध्यात्मवाद है, जो वैदिक संस्कृतिकी नींव है और वह है ‘कण-कणमें ईश्वरकी प्रतीति लेना’ । जर्मनीमें पतझडमें वे वृक्ष काट सकते हैं और हमारे यहां वृक्ष काटना ही पाप कर्म है, आप पण्डित तो हैं; परन्तु आपका धर्मपर अभ्यास अल्प है; इसलिए पाश्चात्य संस्कृतिकी सतही आदर्शआपको सहज ही प्रभावित कर रही है ।” – तनुजा ठाकुर



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