अहं निर्मूलन (भाग-५)


अपनी चूक स्वीकार न करना
जिन कार्यकर्ताओंमें या साधकोंमें अहं अधिक होता है, उनकी वृत्ति बहिर्मुख होती है । वृत्तिके अन्तर्मुखी नहीं होनेपर उनमें स्वयंके दोष या अहंका उन्हें भान ही नहीं होता है । यदि कभी उनसे चूक हो भी जाए तो वे यह जानते हुए भी चूक उनसे हुई है, वे उसे दूसरोंके समक्ष कभी भी स्वीकार नहीं करते हैं । इसके पीछे मूल हेतु होता है कि लोग क्या कहेंगे ? उन्हें अपनी छविकी बहुत चिन्ता होती है । वे अपनी भ्रामक छविको बनाए रखने हेतु यदि कभी चूक हो जाए तो उसे छुपानेका या दोषारोपणकर ‘दूसरोंकी चूक है’, यह बतानेका प्रयास करते हैं । अपनी तथाकथित अच्छी छविके बचाव हेतु उन्हें यदि अनेक बार झूठ बोलना पडे तो वे उसमें भी संकोच नहीं करते हैं ।
  आजका समाज इतना बहिर्मुख है कि अनेक बार कुछ लोग कहते हैं कि मुझसे कोई चूक होती ही नहीं है, या मुझेमें तो लेश मात्रका भी अहं नहीं है या मेरा अहं तो शून्य है । वस्तुतः शून्य अहं तो हो ही नहीं सकता है, २% अहं रहेगा तो ही शरीर रहेगा; अन्यथा शून्य अहंमें शरीर भी पञ्चतत्त्वमें विलीन हो जाएगा; इसलिए परमहंस या परात्पर पदके भी सन्त अंशमात्रका अहं धारणकर धर्मकार्य या गुरुर्काय करते हैं । गुरु भी सात्त्विक अहं धारणकर गुरु कार्य करते हैं ।
          चूक स्वीकार न करना और अहंके प्रमाणका सीधा सम्बन्ध होता है । जिस व्यक्तिका अहं जितना अधिक होता है, उसमें चूक स्वीकार करनेकी वृत्ति भी उतनी ही अल्प होती है । आपने आजकलके नेताओंको तो देखा ही होगा कि वे भ्रष्टाचारमें चाहे कारागारका दण्ड भोग रहे हों; किन्तु ‘उनसे चूक हुई है’, यह वे स्वीकार नहीं करते हैं । संसद भवनमें भी आपने देखा ही होगा कि राजनेता कहे जानेवाले लोग कैसे बहिर्मुख होकर अपनी चूक स्वीकार करनेके स्थानपर वाद-विवाद करते हैं, दोषारोपण करते हैं । ‘यथा राजा तथा प्रजा’; इसलिए प्रजामें भी ऐसे दुर्गुण सहज ही दिखाई देते हैं और ध्यान रखें, जिस घरमें अहंकार अधिक हो, वहांके सभी लोग प्रेमसे नहीं रह पाते हैं तो उसी प्रकार समाजमें यदि अधिक अहं हो तो जातिवाद, प्रान्तवाद इत्यादिके सङ्घर्ष होते रहते हैं । इस प्रकार आपको समझमें आता होगा कि यह दोष कैसे हमारे जीवनको क्लेशप्रद बना देता है ?; अत: चूक होनेपर उसे स्वीकार करनेसे अहं न्यून होता है, इस सिद्धान्तको मानकर अपनी चूकोंको स्वीकार करना चाहिए ।


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