* आश्रममें जो शांति और अनन्य चैतन्य मिलता है वह शब्दोंमें व्यक्त करना सम्भव नहीं, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति लेनेके लिए साधकोंने उपासनाके आश्रममें आकर कुछ दिवस साधना करनी चाहिए ।जब हम आश्रमसे बाहर निकलते थे तब पता चलता था कि हम रज और तम प्रधान देहलीमें ठहरे हुए है वरना हमें आश्रमके भीतर एक दिव्य लोकके चैतन्यकी अनुभूति होती थी ।आश्रममें हमें घर और कार्यालयका स्मरण तनिक भी नहीं आ रहा था और हम एक अलौकिक जगतमें हैं ऐसा लगता था ।
* रातको देरीसे सोनेके पश्चात भी हम प्रातः शीघ्रतासे उठ जाया करते थे, थकान नहीं लगती थी और दिनभर प्रसन्न रहते थे । पहले दिन ही समस्त साधक हमसे ऐसे घुल-मिल गए कि जैसे हम उन्हें बहुत समयसे जानते हों ।
* आरतीके समय इतना आनन्द मिलता था कि आरतीसे पूर्व ही ऐसा लगता था कि कुछ मिनिट पूर्व ध्यानकक्षमें पहुंच जाएं एवं पहुंचकर नत-मस्तक हो कर वहांकी दिव्यताकी अनुभूति लें !
* प्रत्येक आरतीके पश्चात परम पूज्य गुरुदेवके लिए रखी कुर्सीपर ‘परम पूज्य भक्तराज महाराज’ एक सात्त्विक हास्यके साथ हमें दिखाई देते थे । उनके चरणोंके आसनपर नमन करनेपर भी उनके चरणोंका भास होता था जो अत्यधिक सौम्य थे ।
* संध्याके समय जब अन्य साधक ‘श्री गणपति अथर्वशीर्ष’ का श्लोक पठन कर रहे थे तब हम अपनी सेवामें मग्न थे। अचानक पासमें चल रहे कूलरसे तीक्ष्ण एवं भिन्न ध्वनि निकलनी आरम्भ हो गई । पहले तो लगा कि सामान्य सी बात है; परन्तु जब हमने एकाग्र होकर सुना तो श्लोक पठन और कूलरके ध्वनिसे समान प्रकारकी ध्वनि सुनाई दे रही थी । हमने एक अन्य साधिकाको भी बताया तो उन्हें भी यही आभास हो रहा था । ध्वनिमें तीक्ष्णता और सौम्यता दोनोंका आभास हो रहा था और आनन्द आ रहा था ।
* आश्रममें अन्तिम दिवस हम गुरुपूर्णिमा हेतु कुछ अर्पण ले कर जब आश्रम आए थे और भोजन करने बैठे थे। भोजनका पहला निवाला खाते ही लगा कि यह तरकारी तनुजा मांने ही बनाई है और जब मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए हामी भरी । तरकारीमें अत्यधिक चैतन्य और स्वाद था, मैंने सोचा कि वही तरकारी हम यात्राके समयमें ले कर जाएंगे, परन्तु सभी साधकोंको वह इतनी अच्छी लगी कि वह बची ही नहीं । (मेरी अनुभूतिको पढनेवालोंसे विनती हैकि मांको भोजन बनानेके लिए विवश न करें; क्योंकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है ।
– मुक्तेश सिंह मनहर, अहमदाबाद (१.६.२०१३)
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