१. ‘उपासना’ द्वारा २२ जुलाई २०१३ को आयोजित देहली गुरुपूर्णिमा महोत्सवमें सहभागी होनेका सौभाग्य मिला । मैं अलीगढमें रहती हूं और मेरे घरकी परिस्थितियां ऐसी थीं कि मुझे लग रहा था कि मैं देहली जा पाउंगी या नहीं; परन्तु तनुजा मांकी कृपा हो गई और मैं देहली पहुंच गई गुरुपूर्णिमावाले दिन मुझे मांके श्रीचरणोंमें पुष्प चढानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ या यूं कहूं उस दिवस मैं अकेली ही थी जिसे यह सौभाग्यवश या परिस्थितिवश यह संजोग प्राप्त हो गया (मां किसीको अपना चरण स्पर्श नहीं करने देती हैं) । मैंने वे पुष्प उनके चरणोंमें चढानेके पश्चात् अलीगढ जाते समय उसे सम्भालकर एक प्लास्टिककी थैलीमें डाल लिए और घर पहुंचकर उसे कपाटिका यानी अलमारीमें रख दिया । दो दिवस पश्चात् मुझे ध्यानमें आया कि वे पुष्प सम्भवतः मुरझा गए होंगे या गल गए होंगे; अतः उन्हें विसर्जित कर दूंगी, जब यह सोचकर उस थैलीको खोला तो उसमें सारे पुष्प नूतन(ताजे) थे । मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ और मैंने उन्हें पुनः वैसे ही रख दिया और पांच दिवस पश्चात् भी उन फूलोंमें से दो पुष्प ‘ताजे’ थे और वे उसके पश्चात् धीरे धीरे सूख गए।
२. वैदिक उपासना पीठसे जुडनेसे पहले मैं गृहकार्यमें इतनी थक जाती थी कि दोपहरमें थोडी देर सोनेके पश्चात ही पुनः कोई कार्य कर पाती थी । अब समष्टि भी कर लेती हूं; प्रातः नीचेवाले तलकी स्वच्छता भी करती हूं तो भी लेटती नही हूं क्यंकि थकान ही नहीं होती है । यह सब आपकी अनन्य कृपा ही है ।
(साधनासे हमारी प्राणशक्ति दो प्रकारसे बढती है, एक तो नामजप करनेके कारण अनावश्यक विचारोंमें मनकी शक्ति व्यय नहीं होती है और दूसरी बात है कि नामजपके साथ उससे सम्बन्धित रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शक्ति सहवर्ती होती हैं अर्थात हमें नामजपसे शक्ति प्राप्त होती है, इसलिए सामान्य व्यक्तिकी अपेक्षा साधक अधिक सेवा बिना थके कर सकते हैं । – सम्पादक)
३. पिछले दिनों मैंने स्वप्नमें देखा कि एक बहुत बडा ग्रन्थ महाभारत किसीने मुझे दिया (किसने दिया स्मरण नहीं है ) । जागनेके पश्चात मुझे लगा कि महाभारत तो घरमें नहीं रखते हैं, ऐसेमें मुझे यह ग्रन्थ क्यों दिया गया; किन्तु कल ही आपका (तनुजा मांका) लेख व्हाट्सऐप्पपर आया था जो इसप्रकार है –
“महाभारत ग्रन्थ घरमें नहीं रखना चाहिए यह है एक अनुचित धारणा
कुछ अज्ञानी कहते हैं कि घरमें महाभारत नहीं रखना चाहिए ? महाभारत एक दिव्य ग्रन्थ है उसका पठन एवं पाठन क्यों करना चाहिए इस सम्बन्धमें उसी ग्रन्थमें लिखा है –
श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः ।
आसेवन्निममध्यायं नर: पापात् प्रमुच्यते ।। –
(आदिपर्व, प्रथम अध्याय)
जो धर्मपरायण पुरुष श्रद्धाके साथ सर्वदा सावधान रहकर प्रतिदिन इस अध्यायका सेवन करता है, वह पाप-तापसे मुक्त हो जाता है । अर्थात मात्र प्रथम अध्यायका जो पाठ कर लेता है उसे इतना लाभ मिल सकता है तो सम्पूर्ण शास्त्रका अभ्यास करनेसे कितना लाभ मिलेगा ?” – तनुजा ठाकुर
मुझे समझमें आ गया कि यह ग्रन्थ हमें पढना भी चाहिए और घरमें रखना भी चाहिए; किन्तु मेरे मनमें शंका आते ही इस लेखका आना, मेरी लिए एक सुखद अनुभूति थी । (२३.२.२०१९)
– साधना सिंह, अलीगढ (उतरप्रदेश)
——–
Leave a Reply