अल्पायुसे ही साधना करना क्यों आवश्यक है ? (भाग – १)


अधिकतर युवा साधकोंको साधना करते देख कुछ अल्पज्ञानी उन्हें दिशाभ्रमित करते हैं कि अभी आपकी आयु ही क्या हुई है ?, अभीसे यह सब करनेकी क्या आवश्यकता है ? साधना तो बुढापेमें सर्व उत्तरदायित्वसे मुक्त होकर करनी चाहिए; परन्तु यह अपने आपमें एक त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण है । अल्पायुसे ही साधना करना क्यों आवश्यक है ?, इसके कुछ कारण इसप्रकार हैं –
* प्राचीन कालमें राजकुमारोंका भी गुरुकुलमें धर्मशिक्षण लेना :
आज हमारी भारतीय संस्कृतिकी रीढ, वर्णाश्रमव्यवस्था, टूट चुकी है और इसका कारण है, धर्मशिक्षण और साधनाका अभाव । पूर्व कालमें राजा-महाराजा भी अपने राजकुमारोंको गुरुकुलमें भेजते थे और उसका कारण था कि बाल्यकालमें साधना एवं धर्मके संस्कारका बीजारोपण हो जाए । ऐसे राजकुमार ही भविष्यमें अपने राजधर्मका निर्वाह करनेके पश्चात अपनी अगली पीढीको राजधर्मका पाठ पढाकर, राज सिंहासनका त्यागकर, वानप्रस्थकी ओर प्रवास करते थे । अर्थात धर्म और साधनाका संस्कार उनमें इतना दृढ था कि एक विशाल साम्राज्यका मोह भी उनके वानप्रस्थ जीवनमें अडचनें निर्माण नहीं कर पाती थीं । वहीं धर्मशिक्षण और साधनाके अभावमें आजके राजनेता और गृहस्थ अपने जीवनके अन्तिम चरणमें पहुंचनेपर भी अपने पद और आसक्तियोंका त्याग नहीं कर पाते । आजके भारतमें अधिकांश महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पदोंपर ६२ वर्षसे अधिक आयुके राजनेता सत्तासीन हैं ! वस्तुत: अपने सामने युवा पीढीको अवसर देकर, उन्हें राजधर्म सिखाना, यह उनका धर्म होना चाहिए; किन्तु सत्तासुखसे इतना मोह होता है कि वे युवाओंको कोई अवसर देते ही नहीं हैं ! गृहस्थोंकी भी यही स्थिति है ! पहले बच्चोंको पालनेमें अपना समय व्यतीत कर देते हैं और उसके पश्चात पोते-पोतियोंमें उनके प्राण अटके रहते हैं !
मृत्यु उपरान्त मात्र धर्म और साधना ही साथ जाती है, बाल्यकालसे ही साधनाका संस्कार अंकित न होनेके कारण आज अधिकांश लोग अपना मनुष्य जीवन मोहमें आसक्त होकर व्यर्थ कर देते हैं !



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