प्रश्न : आपने और आपके साधकोंने अनेक बार ‘अन्तर्मुखता’ इस शब्दका प्रयोग करते हैं यह अन्तर्मुखता क्या होती है ?


उत्तर : अन्तर्मुखी साधकोंके लक्षण :-
१. मितभाषी; परन्तु आवश्यकता होनेपर मिलनसार होता है अर्थात जहां वार्ता करनी आवश्यक हो, वहां अवश्य सहजतासे वार्ता करता है ।
२. किसी भी प्रतिकूल परिस्थितिमें शान्त रहकर उपाय योजना निकलता है ।
३. अपनी चूक स्वतः ही स्वीकारकर, उसके लिए वह स्वयं कैसे उत्तरदायी है ? यह चिन्तनकर, अपने दोषोंमें सुधार हेतु सातत्यसे प्रयत्न करता है, साथ ही यदि कोई बडी चूक हो जाए, तो उसका प्रायश्चित लेकर अपने पापोंका क्षालन करता है ।
४. अपनी आन्तरिक प्रक्रिया अर्थात मन भिन्न परिस्थितिमें किस प्रकार चिन्तन करता है ? उसका सूक्ष्मतासे अभ्यासकर इन्द्रिय निग्रहकर अध्यात्ममें सतत्यसे प्रवास करता है ।
५. अन्तर्मुखी साधकको यह भान होता है कि उसकी प्रत्येक कृतिके साक्षी परमेश्वर या गुरु हैं; अतः वह जानबूझकर अयोग्य कृति करना टालता है ।
६. अन्तर्मुखी साधक सात्त्विक, सन्तुष्ट, आनन्दी, धर्मनिष्ठ, विनम्र, कर्तव्यनिष्ठ, त्यागकी प्रवृत्तिवाला होता है । उससे दूसरोंको कभी कष्ट न हो, इसका उसे सतत ध्यान रहता है । उसकी आन्तरिक साधनाकी अखण्डताके कारण उसमें दिव्यताके गुण परिलक्षित होते हैं ।
इसके विपरीत बहिर्मुख साधक, वाचाल, राजसिक, अपने सुख, यश प्रतिष्ठा हेतु प्रयत्नशील रहता है । प्रत्येक प्रसंगमें दोषारोपणकर वह कैसे योग्य है ? उसका प्रदर्शनकर अपने दोषों एवं चूकको छुपानेका प्रयास करनेके कारण अहंकारी होता है । आजके ९९% नेताओंकी एवं हिन्दुत्ववादी संस्थाओंकी, जिनका आध्यात्मिक आधार नहीं है, उनकी प्रवृत्ति बहिर्मुख है ।



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