वृत्तिके अन्तर्मुख होनेका अर्थ क्या है ? (भाग – २)


योगीकी वृत्ति अन्तर्मुखी और भोगीकी वृत्ति बहिर्मुखी होती है ! भोगमें योगका समन्वय करना सीखकर, एक गृहस्थ अंतर्मुखी हो सकता है । अन्तर्मुखी होने हेतु अपना नित्य आत्मपरीक्षण कठोरता एवं तटस्थतासे करें । कोई भी प्रिय या अप्रिय प्रसंग निर्माण होनेपर मेरी वृत्ति कैसी थी ?, इसकी समीक्षा उसी क्षण स्वयं करना चाहिए ।

किसी भी प्रसंगमें शांत, स्थिर और समाधानी होना, यह अन्तर्मुखताका लक्षण है; अतः प्रत्येक परिस्थितिमें योग्य समाधान क्या हो सकता है ?, उसी अनुरूप आचरण करनेका प्रयास करें ! आरम्भमें यह नहीं होगा; किन्तु प्रयास करते रहनेसे आपमें निश्चित ही सुधार होता है ।



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