* दन्तशूल : २ पत्रोंके स्वरसमें रूईका फाहा बनाकर दांतोंमें लगानेसे, दांतोंकी पीडामें लाभ पहुंचता है तथा पुरानीसे पुरानी ‘कैविटी’को भरनेमें सहायता करता है ।
– इसकी ‘ताजी’ एवं स्वच्छ जडसे प्रतिदिन दातुन करनेसे दांत मोतियोंकी भांति चमकने लगते हैं । दन्तशूलल, दांतोंका हिलना, मसूडोंकी निर्बलता तथा मुखकी दुर्गन्धको दूर करता है ।
* कर्णबाधिर्य : अपामार्गकी नूतन एवं स्वच्छ धोई हुई जडका रस निकालकर, उसमें समान मात्रामें तिलका तेल मिलाकर आगपर पका लें ! जब तेल ही तेल मात्र शेष रह जाए, तब छानकर ‘बोतल’में भरकर रख लें ! इस तेलकी २ या ३ बूंदें उष्णकर (गर्मकर) प्रतिदिन कानमें डालनेसे, कानका बहरापन व बहना दूर होता है ।
– आंखकी फूलीमें, अपामार्गके मूलके २ ग्राम चूर्णको, २ चम्मच मधुके साथ मिलाकर २/२ बूंद आंखमें डालनेसे लाभ होता है ।
* नेत्र विकार : नेत्राभिष्यन्द, नेत्रशोथ, कण्डू, स्राव, नेत्रोंकी लालिमा, फूली तथा रतौन्धी आदि विकारोंमें, इसकी स्वच्छ मूलको स्वच्छ ताम्बेके बरतनमें थोडासे सेन्धे लवण मिले हुए दहीके पानीके साथ घिसकर, अंजन रूपमें लगानेसे लाभ होता है ।
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