आपातकालमें देवताको ऐसे करें प्रसन्न ! (भाग-९)


      आपने देखा है या नहीं मुझे ज्ञात नहीं है; किन्तु जगन्नाथपुरी मन्दिरमें आज भी महाप्रसाद मिट्टीके पात्रमें और लकडीकी अंगीठीपर ही बनता है । वहां प्रतिदिन लाखों लोग महाप्रसाद ग्रहण करते हैं तो क्या वे आधुनिक यन्त्रों एवं आधुनिक स्टीलके पात्रोंमें महाप्रसाद नहीं बना सकते हैं ? ध्यान रहे, यह हिन्दुओंकी चार महत्त्वपूर्ण पीठोंमेंसे एक पीठ है; इसलिए उसकी सात्त्विकता बनाए रखना हिन्दुओंका धर्म है; इसलिए वहांके महाप्रसादमें अद्भुत स्वाद होता है, जो उसमें निहित चैतन्यका ही प्रभाव होता है और पूर्वकालमें यह चैतन्य सभीके घरोंमें बनाए जानेवाले महाप्रासादमें मिलता था, जो आज धर्मशिक्षण व साधनाके अभावमें नहींके समान रह गया है ।
आपको मैंने अभी मात्र अन्नपूर्णा कक्षमें देवत्व निर्माण करनेके पक्षमें कुछ तथ्योंको बताया है । मुझे ज्ञात है कि ये तथ्य कटु सत्य हैं, इससे आपको कष्ट भी हो रहा होगा; किन्तु किसी न किसीको तो यह बताना ही होगा; क्योंकि जबतक हम भोजनको प्रसाद बनानेकी कलाको पुनः नहीं सीखते हैं, तबतक हमारा शरीर व मन शुद्ध, स्वस्थ व पवित्र नहीं हो पाएगा । तो आज आपको अन्नपूर्णा कक्षमें प्रसाद बनाने हेतु उपयोगमें लेनेवाले पात्रोंके (बर्तनोंके) विषयमें बताती हूं !
       आजसे ५० वर्ष पूर्वतक सभी हिन्दू पीतल, कांसा या ताम्बेके पात्रमें भोजन ग्रहण करते थे एवं ऐसी ही सात्त्विक धातुओंसे बने पात्रोंमें भोजन करते थे । इसके साथ ही मिट्टीके पात्रोंका उपयोग भी रोटी बनाने हेतु, तवेके रूपमें एवं दाल, चावल बनाने हेतु व दूध उबालने हेतु, दही जमाने हेतु व अचार इत्यादि संग्रहित करने हेतु सम्पूर्ण भारतमें होता था । कुल्हडकी चाय तो आज भी अनेक स्थानोंपर प्रचलित है; किन्तु जबसे हम आधुनिक हो गए, सबसे पहले हमने सात्त्विक जीवन पद्धतिका परित्याग कर दिया । अपने घरमें लोहेके (स्टीलके) पात्रोंमें भोजन करने लगे और जब अधिक  धन आ गया तो अस्थियोंके (हड्डियोंके) पात्रोंको जिसे हम ‘बॉन चाइना’ कहते हैं, उसका उपयोग आरम्भ कर दिया । अर्थात बुद्धि हमारी इतनी भ्रष्ट हो गई कि देवताके चैतन्य ग्रहण करनेवाले ताम्बा, कांस्य एवं पीतलके पात्रोंका त्यागकर आसुरी पात्रोंमें प्रसाद नहीं वरन भोजन आरम्भकर दिया और इसके पश्चात कहते हैं भारतीय रोगी बन रहे हैं । अब आप ही बताएं ऐसेमें हम रोगी नहीं तो क्या नीरोगी बनेगें ?
        प्रसाद बनानेवाले पीतलके पात्रोंको भी उसे श्रमकर धोना पडता था; इसलिए हमने कर्करोगके साथ ही अनेक रोगोंको निमन्त्रण देनेवाले ‘नॉन स्टिक’ व ‘एल्युमिनियम’के पात्रोंका उपयोग आरम्भकर दिया । प्रिय हिन्दुओ, पाश्चात्योंका विवेक उनकी तमोगुणी जीवन शैलीके कारण जाग्रत न होनेसे उन्होंने शिवत्वहीन विज्ञानको जन्म दिया; किन्तु आप तो साधना करते हैं, आपको यह भेद ज्ञात क्यों नहीं हो पाया ? इसपर चिन्तन अवश्य करें एवं अपने घरसे अस्थियों, नॉन स्टिकके एवं एल्युमिनियमके पात्रोंको उठाकर बाहर फेंके तभी आपके अन्नपूर्णा कक्षमें देवत्व आ पाएगा । ‘जैसा खाए अन्न वैसा रहे मन’, इस सिद्धान्तके अनुसार भोजन नहीं प्रसाद बनाएं एवं ग्रहण करें तथा हिन्दू राष्ट्र हेतु सुपात्र बनें ! और हां आजका सत्संग पुनः सुनें वह आजके लेखसे ही सम्बन्धित है ।


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