बाहरका भोजन साधकोंने क्यों नहीं करना चाहिए ? (भाग-३)


भोजनके तीन भाग होते हैं, स्थूल भाग मल बनता है, मध्यमसे रक्त, रस, मांस और सूक्ष्मसे मन बनता है । इसलिए कहा गया है ‘जैसा खाए अन्न वैसे रहे मन !’ बाहरका अन्नको ग्रहण करनेसे पूर्व चिन्तन करना चाहिए कि क्या यह अन्न खाना मेरे लिए अति आवश्यक है ? यदि ऐसा हो तो ही ग्रहण करें; क्योंकि बाहरका अन्न स्थूल और सूक्ष्म रूपसे कितना शुद्ध होता है ? यह हमें ज्ञात नहीं होता ।
आवश्यकतासे अधिक भोजनसे व्यक्ति रोगी बनकर शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है एवं सन्तुलित अन्न खानेवाला व्यक्ति स्वस्थ रहता है । मिताहारी व्यक्ति योग, साधना या भक्तिमें कभी आगे नहीं बढ सकता है ।
शास्त्रोंमें कहा गया है –
आहार शुद्धौ सत्वाशुद्धि: सत्व-शुद्धौ ।
ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षा: ॥
भोजन शुद्ध व पवित्र होता है तो अन्तःकरण शुद्ध होता है एवं सत्त्व शुद्धिसे बुद्धि शुद्ध और निश्रयी बन जाती है, तत्पश्चात पवित्र और निश्रयी बुद्धिसे साधना सरलतासे होती है और इससे ही सर्व कुसंस्कार नष्ट हो जाते हैं, साधनाका मार्ग प्रशस्त होता है, जो मुक्तिका कारण बनता है ।



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