१. छह अक्टूबर २०१३को मैं देहली आश्रमके सत्संगमें गई जो तनूजा मांने लिया था । सत्संगसे आनेके पश्चात् सम्पूर्ण रात्रि मैंने मांको सिंहपर बैठे हुए पाया और उनके साथ ही मेरे गुरुदेव परम पूज्य मेहीं बाबा भी थे, दोनों ही सत्संग कर रहे थे और मुझे अत्यधिक आनन्द आया, ऐसा लगा कि जैसे मैं सम्पूर्ण रात्रि सोयी नहीं थी; अपितु दोनोंके सत्संगमें उपस्थित थी ।
२. उसी दिवस सत्संगमें मुझे अचानक अत्यधिक खांसी होने लगी, सभी साधकको सत्संग सुननेमें बाधा न आए इसलिए मैं दो मिनटके लिए बाहर चली गयी और खांसी बन्द होनेपर पुनः आई; परन्तु सत्संगमें पुनः बैठनेपर मुझे खांसी होने लगी और वह रुक ही नहीं रही थी, तभी मांकी दृष्टि मेरी ओर गई और मेरी खांसी पूर्णत: समाप्त हो गई।
३. २२ सितम्बरको मैं सत्संगमें गई और सत्संगके पश्चात मुझे प्रसाद घर ले जानेके लिए दिया गया था जो मैं घर जाते समय भूल गई और अगले दिवस मेरे पुत्रका स्वास्थ्य अचानक ही अधिक बिगड गया ।मैं तुरन्त आश्रम पहुंची और एक दिवस पूर्ववाला मेरा प्रसाद लेकर आई और अपने पुत्रको दो बार खिलाया, उससे वह पूर्ण रूपसे स्वस्थ हो गया और संध्या समय खेलने भी चला गया जबकि सवेरे उसका स्वास्थ्य इतना खराब था कि मुझे लगा था उसे चिकित्सालय ले जाकर प्रविष्ट करना पडेगा ।यह चमत्कार आश्रमके प्रसादके कारण हुआ ऐसा मुझे लगता है ।
– ममता राय, देहली
अनुभूतिका विश्लेषण : श्रीमती राय सप्ताहमें दो या तीन बार मेरी ‘मालिश’ करती थीं । लेखन करते समय या बाहर जाकर प्रसार करते समय अनिष्ट शक्तियां मुझे अत्यधिक कष्ट देती हैं और ऐसे मुझे अत्यधिक शारीरिक वेदना होती है । कभी-कभी वेदनासे शरीरमें गांठें भी बन जाती है; अतः कभी-कभी मैं स्वयं अपनी ‘मालिश’ करती हूं तो कभी किसी साधकको कहती हूं । एक साधकने मुझे किसी ‘मालिश’वालीसे थोडे समयके लिए नियमित ‘मालिश’ करवानेके लिए कहा । इसी क्रममें उन्होंने मेरा परिचय श्रीमती ममतासे करवाया, वे घरोंमें जाकर झाडू, बर्तन पोछाका कार्य भी करती हैं ।
उनसे चर्चा करनेपर मुझे पता चला कि उन्होंने अल्पायुमें ही गुरुमन्त्र ले लिया था और उनके गुरुके प्रति उनका भाव भी अति सुन्दर है । उन्होंने मेरा परिचय जाननेके पश्चात ‘मालिश’ करते समय मेरे प्रवचन सुननेकी इच्छा दर्शाई और अब वे ‘मालिश’के समय मेरे प्रवचन भी सुनती थीं और मेरी ‘मालिश’ भी करती थीं ।
उनके भावके कुछ उदाहरण, जिसका मुझे भान हुआ वह बताती हूं । मेरी ‘मालिश’ करनेसे पूर्व वे अपने घरसे स्नानकर आती थीं । उन्हें लगता है कि दूसरोंके घरोंके जूठे बर्तन मांजनेके पश्चात शरीर अशुद्ध हो जाता है, ऐसेमें वे मेरी ‘मालिश’ नहीं कर सकती हैं; अतः वे जब भी ‘मालिश’ करने आती थीं तो स्नानकर दोपहर तीन बजे आती थीं । जब मुझे पता चला तो मैंने उन्हें ऐसा करनेसे मना कर दिया; परन्तु उनकी इस कृतिसे उनका भाव परिलक्षित होता है । ‘मालिश’ करते समय ही उन्होंने कुछ आश्रम सेवा करनेकी इच्छा दर्शाई और तब वे एक समयका बर्तन स्वच्छ करनेकी निःशुल्क सेवा करती थीं । उन्हें अधिक बोझ न हो; इसलिए जब आश्रमके कुछ साधक उनकी आनेसे पूर्व कुछ बर्तन स्वच्छ कर रख देते थे, तो उन्हें इसका भान हो गया और उन्होंने एक दिवस साधकोंसे कहा, “लगता है आप सब मेरे आनेसे पहल कुछ बर्तन धो देते हैं; क्योंकि मुझे पता है कि इतने साधकोंका भोजन बनाने हेतु कितने बर्तन लगते हैं ? आपसे नम्र विनती है कि आप मुझसे यह सेवा न लें और सारे बर्तन मुझे ही धोने दिया करें !”
वे अति स्वच्छ, व्यवस्थित और अनुशासित रहती हैं । समयका पालन करना यह गुण भी उनमें निहित है । मैंने उन्हें योग्य साधना कैसे करना चाहिए ? यह भी बताई और वे इस दिशामें प्रयास भी करने लगी हैं । सत्संगमें वे निश्चिन्त होकर बैठ सकें, इस हेतु वे प्रायः दो-तीन घरोंके कार्य पहले ही समाप्तकर आती थीं । वे नम्र और जिज्ञासु प्रवृत्तिकी हैं, यद्यपि अधिक पढी-लिखी नहीं हैं । जब मैं सत्संगमें साधकोंको संस्कृतमें रामरक्षास्तोत्र सीखा रही थी तो वे भी उसे सीखनेका प्रयास कर रही थीं । वे किसी आश्रममें रहकर अपने माता, पिता और भाई समान सेवा और साधन करना चाहती थीं, ऐसा उन्होंने मुझे बताया । – (पू.) तनुजा ठाकुर
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