देवालय (मंदिर) अर्थात देवोंका आलय (आश्रय स्थान या घर) । देवालयोंके निर्माणका मुख्य कारण था कि मनुष्यों को एक ऐसा स्थल मिले जहां किसी भी समय जानेपर उन्हें सात्त्विकता और चैतन्य प्राप्त हो एवं उनके माध्यमसे समाजको धर्मशिक्षण भी मिलता रहे । यथार्थमें देवालय आध्यात्मिक प्रगतिका एक चैतन्यमय माध्यम है । देवालयोंको हम जितना अधिक सात्त्विक रखेंगे उनसे हमें उतना ही अधिक चैतन्य प्राप्त होगा । अतः हमारे ऋषि मुनियोंने देवालयोंको सात्त्विक कैसे बनाए रखें ?, इस हेतु कुछ नियमावली बनायीं । देवालयोंमें सूतक, पातक या रजस्वलावाली स्त्रियोंका जाना मना है; क्योंकि इससे देवालयमें अंशात्मक रूपमें रजोगुणमें वृद्धि होती है, जिससे कुछ कालोपरांत वहांकी सात्त्विकता घट जाती है । यदि सात्विकता घट जाएगी तो मन:शांति एवं साधना हेतु वह स्थान पोषक नहीं रह पाएगा । इसी प्रकार देवालयोंमें चर्मके वस्तुओंको भी नहीं लेकर जाना चाहिए, चर्मके वस्तु मृत जानवरोंके चर्मसे बनते हैं, जो मूलत: तमोगुणी होते हैं और उनसे भी हमारा शरीर अपवित्र हो जाता है एवं ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण करनेकी क्षमता घट जाती है । हिन्दू धर्ममें कर्मकांडकी साधना हेतु शरीरकी शुचिता एवं स्थानका पवित्र होना परम आवश्यक होता है । देवालयमें मूर्ति और देवस्थलके चैतन्य एवं शक्तिको बनाए रखने हेतु कर्मकाण्ड (पूजा -अभिषेक) इत्यादि भी परम आवश्यक होता है । – तनुजा ठाकुर (२७.१.२०१४)
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