ईश्वरने सृष्टिकी रचनाके साथ ही दो शक्तियों, दैवी और आसुरी शक्तियोंका निर्माण किया, जिनमें पहली है, इष्टकारी शक्ति या कल्याणकारी शक्ति और दूसरी है, अनिष्टकारी शक्ति अर्थात विनाशकारी शक्ति । जब किसी दुर्जनकी मृत्यु हो जाए और उसका क्रिया-कर्म वैदिक रीतिसे न हुआ हो, या उसके कर्मानुसार उसे गति न मिले, तो वे अनिष्ट शक्तियोंके गुटमें चले जाते हैं । उसी प्रकार हमारे पूर्वजोंने यदि पापकर्म किए हों, या उनकी कोई इच्छा अतृप्त रह गई हो और हम अतृप्त पितरोंकी सद्गतिके लिए योग्य साधना नहीं करते हों, तो वे भी अनिष्ट शक्तियोंके गुटमें चले जाते हैं और अनेक बार साधनाके अभावमें बलाढ्य आनिष्ट शक्तियां उन्हें सूक्ष्म जगतमें बंधक बना, उनसे बुरे कर्म करवाती हैं; अतः उनकेद्वारा बाध्य होकर दिए जानेवाले कष्टको भी अनिष्ट शक्तिके कष्ट कहते हैं ।
वर्तमान समयमें साधना एवं धर्माचरणके अभावमें व्यष्टि (वैयक्तिक) एवं समष्टि (सामाजिक) जीवनमें अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट बढ गया है और चारों ओर ‘त्राहिमां’की स्थिति बन गई है l
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