जैसे एक सुपुत्रको पिता द्वारा अर्जित धन उसे स्वतः ही प्राप्त हो जाता है वैसे ही खरे शिष्यको गुरुके द्वारा अर्जित ज्ञान, भक्ति और वैराग्यकी थाती स्वतः ही सूक्ष्मद्वारा प्राप्त हो जाती हैं ! समाज स्थूलकी भाषा समझता है; अतः पिता द्वारा अर्जित धन यदि पुत्रको मिले तो उसे वह समझमें आता है; परंतु गुरुद्वारा सूक्ष्मसे दिया गया शिष्यको ज्ञान, भक्ति और वैराग्यकी थाती उसके गले की नीचे तुरंत नहीं उतरती ! गुरु ऐसे शिष्यकी कठोर परीक्षा लेकर समाजके समक्ष शिष्यकी पात्रताको सिद्ध करते हैं और शिष्य भी सब कुछ गुरु लीलाका भाग मानकर सहज होकर सब कुछ सहन करता है। जब शिष्य अपनी गुरुभाक्तिसे अपनी इस पात्रता सिद्ध कर देता है, तो समाज ऐसे शिष्यको अपने सर आंखोंपर बैठाता है, इतिहास इसका साक्षी है – तनुजा ठाकुर
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