साधना, साधक एवं उन्नतसे सम्बन्धित प्रसार संस्मरण (भाग – ३ )


ख्रिस्ताब्द २००० में मैं एक दिवस अयोध्यामें धर्म प्रसारकी सेवा अन्तर्गत ग्रन्थ प्रदर्शनी केन्द्रपर (स्टालपर) ग्रन्थके माध्यमसे जिज्ञासुओंको साधना बता रही थी । उस दिवस, एक ४५ वर्षीय साध्वी स्त्री मेरे पास आई और पूछने लगी “यहां क्या कर रही हो ?” मैंने कहा कि पूर्णकालिक साधक हूं तो वे मुझे अपने जीवनके वृतान्त सुनाने लगी कि कैसे उन्हें एक ढोंगी गुरु मिले और उनकी शासकीय चाकरी (सरकारी नौकरी) तक छुडवा दी और उसकी सम्पूर्ण जीवनके अर्जित धनको लूट कर, स्वयं आश्रम बनाकर, उसे कहींका नहीं छोडा तथा अब उसीके पैसेसे बने आश्रमके एक कक्षमें रहनेके लिए वे किराएकी मांग कर रहे हैं ! अन्तमें वे मुझे सतर्क करते हुए परामर्श देते हुए कहने लगीं, ” स्त्री साधकोंके लिए अध्यात्मका क्षेत्र नहीं है इसलिए तुम्हें यह सब छोडकर, पुनः सांसारिक जीवनमें चले जाना चाहिए; क्योंकि अभी भी कुछ नहीं बिगडा है।”
मैंने कहा, “मैया, कृष्णके जन्मसे पहले भी कृष्ण थे (उनका तत्त्व विद्यमान था), द्रौपदीके कालमें भी कृष्ण थे और आज भी है, सुक्ष्म रूपमें। चीर हरणके समय जब तक द्रौपदीने सांसारिक आधारसे अपेक्षा रखी  (भीष्म पितामह, गुरु द्रोण और अपने पांच पतियोंका उसे आधार लगता था ) तब तक कृष्णने सहायता नहीं। आपकी भक्ति कम पड गयी और कुछ नहीं !”
उन्होंने हमारे निवास स्थानका पता लिया और दो चार दिवस पश्चात् हमसे मिलने वहां आ पहुंची। हम कुछ साधक एकसाथ रहकर धर्मप्रसारकी सेवा करते थे। वे पुनः मुझे सचेत करने हेतु अपना उदहारण देने लगी। उनके इस प्रकार बार-बार मुझे साधना एवं गुरुका परित्याग करनेकी दुराग्रह करनेपर मैंने उनसे कहा, “मैंने अपने श्रीगुरुके साहित्योंका, उनके साधकोंका, उनके कार्यके उद्देश्यका एवं उनकी कार्य पद्धतिका अच्छेसे एक वर्ष बुद्धिसे अभ्यास किया है एवं पूर्णकालिक साधना करने हेतु अपनी मानसिक सिद्धता की है तथा साधना कर उनकी अलौकिक अद्वितीयताकी अनुभूति लेनेके पश्चात् ही सब कुछ त्यागकर इस मार्गको चुना है और आज मैं पूर्ण विश्वाससे यह कह सकती हूं कि इस ब्रह्माण्डमें यदि कुछ सत्य है तो वह, यह कि मेरे श्रीगुरु परब्रह्म है और मुझे इसमें किंचित मात्र भी संशय नहीं है; अतः इसप्रकारकी बातें कर आप मुझे साधनामार्गसे दूर नहीं कर पाएंगी, आपके साथ जो हुआ है, उसका मुझे दुःख है और आप अपनी भक्ति बढायें, मैं मात्र इतना ही कह सकती हूं। ” वे कहने लगीं, “आप मेरी सहायता कैसे कर सकती हैं ?” मैंने कहा, “आप भी हमारे साथ रहकर साधना और सेवा कर सकती हैं, हमारे श्रीगुरु दयालु हैं, वे आपको भी शरण देंगे, आप आएं और कलसे सेवा आरम्भ करें।” और मैंने उन्हें क्या सेवा वे कर सकती हैं, यह उन्हें बताया; किन्तु उसके पश्चात् वे कभी नहीं आईं या दिखाई दीं।
इस प्रसंगसे जो तथ्य सामने आते हैं वे इसप्रकार हैं –
१. पूर्ण समय साधना करनेका निर्णय लेने हेतु शीघ्रता न करें।
२. भावनामें बहकर पूर्ण समय साधना करनेका निर्णय न लें।
३. अपनी परिस्थितयोंसे भागने हेतु पूर्ण साधना न करें। जैसे एक युवकको पढाई नहीं करनी थी अतः वह घरसे भागकर हमारे आश्रममें आ गया। उनके माता-पिता, उसे पुनः घर भेजनेका मुझसे आग्रह करने लगे। मैंने उस युवकसे बातचीत की थी और उसके सूक्ष्मसे आध्यत्मिक स्तर भी निकाला था, उसे आध्यात्मिक कष्ट और अहंका भी सूक्ष्म परिक्षण कर चुकी थी। मैंने उनके माता-पितासे कहा, “साधना करना सरल नहीं, यदि आपका पुत्र इस मार्गपर अडिग रहा तो वह आपके कुलका उद्धार कर कुलदीपक कहलायेगा और यदि पात्रता नहीं होगी तो वह स्वतः ही चला जाएगा, आप निश्चिन्त होकर इसे यहां कुछ दिवस रहने दें।” और वही हुआ आठ माहके पश्चात् उसे भान हुआ कि उसमें पूर्ण समय साधना करनेकी पात्रता नहीं है और वह आश्रमसे जानेकी अनुमति मांगकर चला गया। ध्यान रहे सांसारिक परिस्थितियोंसे भागनेवाला कभी भी साधना नहीं कर सकता है। यह मार्ग कर्मयोगियोंके लिए है, यह मार्ग त्यागी प्रवृत्तिवाले मुमुक्षुओंके लिए है, भगोडोंके लिए नहीं है !
४. पूर्ण समय साधना वह कर सकता है, जिसमें दृढ इच्छाशक्ति हो।
५. पूर्ण समय साधना करनेसे पूर्व अपने मनका अभ्यास करना चाहिए कि क्या इस चुनौतीपूर्ण मार्गपर चलने हेतु या इस मार्गमें आनेवाली कष्टोंका हंसकर सामना करनेकी मेरी मानसिक सिद्धता है।
६. पूर्ण समय साधना करनेसे पूर्व अपनी व्यष्टि साधनाके आधारको ठोस करें, जिस गुरुके संरक्षणमें आप साधना करनेवाले है उनके साहित्योंका, कार्यपद्धति एवं साधकोंका या शिष्योंका भी अभ्यास करें एवं जब आप सबसे संतुष्ट हो जाएं तो ही पूर्ण समय साधना करनेका निर्णय लें। गुरुने आपकी अंतरात्मामें अपनी ईश्वरीय तत्त्वकी अनुभूति प्रदान करनी चाहिए, तभी आप उनके शरणागत हों !
७. मेरा अनुभव तो यह रहा है कि पूर्णकालिक साधकोंके लिए गुरुतत्त्व सदैव ही अत्यन्त क्रियाशील रहता है एवं उसकी सभी आवश्यकताएं, वह तत्त्व किसी न किसीके माध्यमसे इतनी सहजतासे पूर्ण करता है कि उनकी कृपाके विषयमें सोचकर, साधक कृतज्ञ होकर साधनापथपर और भी उत्कंठासे अग्रसर होता है।
८. जिनमें सांसारिक वस्तुको पानेकी या अपनी वासनाएं तृप्त करनेकी या प्रतिष्ठा पानेकी इच्छा हो, ऐसे व्यक्तिको उच्च कोटिके सद्गुरु विरले ही मिलते हैं। जैसी शिष्यकी पात्रता होती है गुरु भी वैसे ही मिलते हैं। अतः ऐसे लोगोंने पूर्ण समय साधनाका निर्णय नहीं लेना चाहिए अन्यथा उसे भविष्यमें पछताना पड सकता है।
९. आलसी या भोगी प्रवृत्तिके व्यक्तिने पूर्ण समय साधनाका निर्णय नहीं लेना चाहिए; क्योंकि यह मार्ग उनके लिए है जो खरे अर्थोंमें कर्मठ होते हैं। आलसी(तमोगुणी) या भोगी(रजोगुणी) व्यक्ति इस मार्गपर अधिक समय नहीं टिक सकता है; अतः वे पूर्ण समय साधनाका निर्णय न लें !
१०.  पूर्ण समय साधना करनेकी कोई आयु नहीं होती है। वैराग्य जिस दिन जिस क्षण आ जाए, उसी क्षण ले लें और यदि आप अपने और जगतके कल्याण हेतु पूर्ण समय साधनाका निश्चय करते हैं तो मात्र आपका ही क्यों आपके परिवारका भी सम्पूर्ण योगक्षेम, गुरु वहन करनेका सामर्थ्य रखते हैं। गुरु, ईश्वरके प्रतिनिधि होते हैं; जैसे ईश्वर, अनंत कोटि ब्रह्माण्डका पालन-पोषण करनेमें समर्थ होते हैं और परमेश्वर, महासागरकी अनन्त गहराईयोंमें भी जीवोंको भोजन और जीवन दते हैं, वैसे ही गुरु अपने भक्तोंको सब कुछ देनेमें समर्थ होते हैं, आप शरणागत होकर तो देखें ! यह मार्ग भक्तोंके लिए सरल, सुखद एवं आनंदायक है ! गुरुका संरक्षण मिलना अर्थात् साक्षात ईश्वरका शुभाशीष मिलने सामान हैं किन्तु यह मात्र भाग्यशालियोंको प्राप्त होता है, यह विशेष कृपा अर्थात् श्रीगुरुका ही होकर रहना, यह सबके लिए प्राप्य नहीं !
११. सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सामान्य व्यक्तिको पञ्च महाऋण देने होते हैं, सम्पूर्ण शरणागत हुए शिष्य इन ऋणोंसे मुक्त होता है और ऐसे शिष्योंका हाथ, गुरु मोक्षप्राप्ति तक नहीं छोडते हैं। और यह काल तो पूर्णकालिक साधकोंके लिए स्वर्णिम काल है। इन पच्चीस वर्षोंके पश्चात् अब पुनः पांच सहस्र वर्ष पश्चात् ही इस कालका पुनरागमन होगा; अतः मुमुक्षु, साधक और गुरुभक्तोंने अपना सर्वस्व श्रीगुरुके चरणोंमें न्योछावर कर इस संधि कालका लाभ उठाना ही चाहिए – तनुजा ठाकुर (२२.१०.२०१७)



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