यूरोपीय देशोंका स्वभाषाभिमान


यूरोप धर्मयात्राके मध्य मैंने पाया कि वहांके लोगोंमें स्वभाषाभिमान कूट-कूटकर भरा हुआ है । वहां अंग्रेजी भाषाको लोग निकृष्ट दृष्टिसे देखते हैं और अपनी मातृभाषा भाषा बोलनेमें गर्व अनुभव करते हैं । वहीं स्वभाषाभिमानरहित भारतीय हिन्दू जो वहां रह रहे हैं, वे अपनी सन्तानोंको अपनी भाषा बोलना, पढना और लिखना नहीं सिखा पाते हैं और तो और, वे अपनी सन्तानोंको यूरोपीय भाषामें बोलते देख, गर्व अनुभव करते हैं ।

यदि हम उस देशमें जाते हैं तो सर्वप्रथम हमें उनकी भाषा सीखनी होती है, तभी हम वहां रह सकते हैं एवं इस हेतु शासनद्वारा अनिवार्य रूपसे उसे सीखने हेतु बाध्य किया जाता है ।

मैं प्रातः सूर्यस्नान व प्राणायाम हेतु निकटके पार्कमें जाती हूं; किन्तु यूरोप धर्मयात्राके मध्य साधक मुझे एक क्षणके लिए अकेले नहीं छोडते थे; उनका कहना था कि यदि आप हमारे घरका पता भूल गए तो आपको सीधे ‘पुलिस स्टेशन’ ही जाना होगा और इससे समस्या निर्मित होगी । जब मैं पुनः गई तो एक साधकने मेरे लिए एक स्थानीय ‘सिमकार्ड’ लेकर ही रखा था, जिससे मैं यदि घूमनेके लिए निकलूं और मार्ग भटक जाऊं तो उनसे सम्पर्क कर सकूं ।

यूरोपीयोंके भाषाप्रेमके विषयमें एक अनुभव आपको बताती हूं । मई २०१३ में हम कारयानसे इटलीसे जर्मनी गए । जर्मनीके कोलोन महानगरमें हमारा प्रवचन था और हमें सीधे मन्दिरमें पहुंचना था । कोलन महानगरमें पहुंचनेपर हम राजमार्गसे भीतर आ गए । हमें मन्दिरके पण्डितजीने बताया था कि राजमार्गसे मात्र तीन किलोमीटरपर अफगानी हिन्दुओंका मन्दिर है । किसी करणवश पण्डितजी हमारा दूरभाष नहीं उठा पा रहे थे और ‘GPRS’में भी कुछ समस्या आ गई थी; अतः वह चल नहीं रहा था । हमें सोचा किसीसे पूछ लेते हैं । हमारे साथ एक साधक थे । उन्होंने पांच-छह लोगोंको अंग्रेजीमें उस मन्दिरका पता दिखाते हुए पूछा; किन्तु सभी कन्धे उचकाकर ‘हमें नहीं पता है’, यह बोलकर चले जाते थे । हमें कुछ समझमें नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है ? वह कोलनका बहुत प्रसिद्ध एवं पुराना मन्दिर था और वहां यद्यपि उसीमें गुरुद्वारा भी था; इसलिए भी उसे अनेक लोग जानते थे । हमने मन्दिरका नाम हटाकर, मात्र उस स्थानका नाम अंग्रेजीमें लिखकर पूछा तो भी कोई नहीं बता पा रहा था । मैंने देखा कि वे ‘पर्ची’में अंग्रेजीमें कुछ लिखा देखकर ही जैसे भडक जाते थे और जैसे उन्हें ज्ञात नहीं हो, ऐसा  अभिनय कर रहे थे । हम ऐसे ही बिना पूछे जब आगे बढे तो बार-बार एक गोलचक्करपर आ जाते थे । तब मुझे विचार आया कि हमारे साथ जो साधक श्री. ब्रिज अरोडा हैं, वे तो इटैलियन जानते हैं, तो उनसे कहा कि हो सकता है कि कोई इटैलियन जानता हो !

यूरोपमें जाकर ज्ञात हुआ कि जर्मनीकी अपेक्षा इटलीमें अधिक समय ग्रीष्मकाल होता है; इसलिए सभी देशोंके लोग इटलीमें सूर्यके प्रकाशका लाभ लेने हेतु आते हैं । हमारी यह युक्ति सफल हुई । तीन लोगोंको दिखानेके पश्चात एकने हमें मन्दिरका पता बता दिया और पहले लोग अंग्रेजी देखकर कुछ बताना नहीं चाहते थे; किन्तु इटैलियन देखकर उसे पढते अवश्य थे । इससे मुझे ज्ञात हुआ कि उन देशोंमें स्वभाषाभिमान कितना अधिक है !

जर्मनी जानेपर मुझे ज्ञात हुआ कि अब वहां विद्यालयोंमें अंग्रेजी भाषा सिखाई जाने लगी है; किन्तु पहले किसी भी यूरोपीय देशमें इस भाषाको तुच्छ मानकर उसे सीखा नहीं जाता था और कुछ राजनीतिक कारण भी थे, जिस कारण वे अंग्रेजी भाषासे घृणा करते थे । हम भारतवासी आज भी मानसिक स्तरके पराधीन हैं और इस भाषाको, राष्ट्रभाषा हिन्दी और अपनी स्थानीय मातृभाषासे अधिक महत्त्व देते हैं । विदेश जाकर हिन्दू यह सब क्यों नहीं सीखते हैं ? ये मेरे मनमें प्रश्न निर्मित होता है ।



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