विदेशमें रहनेवाले हिन्दुओंकी दु:स्थिति, कारण एवं निवारण (भाग – १)


ईश्वरीय कृपासे मेरे लेखोंके पाठक अनेक देशोंमें फैले हैं और वे अधिकांशत: हिन्दू हैं; (भविष्यमें बहुत बडे प्रमाणमें अहिन्दू भी उपासनाके साधक बनेंगे) अतः कटु सत्यसे परिचित करनेवाली यह लेख श्रृंखला आरम्भ कर रही हूं, मुझे ज्ञात है कि मेरी बातें आपको निश्चित ही कडवी लगेंगी; किन्तु इस कटु सत्यका पान कर स्वयंमें परिवर्तन करेंगे तो आपको निश्चित ही लाभ होगा !
विदेशमें रहनेवाले उच्च स्तरके हिन्दू साधकोंमें रज-तमके आवरणके कारण उनमें अत्यधिक प्रमाणमें स्मरणहीनता दिखाई देती है । सबसे आश्चर्यकी बात यह है कि मायासे सम्बन्धित सर्व तथ्योंमें वे अत्यधिक चतुर होते हैं अर्थात उनकी ग्रहण शक्ति, स्मरण शक्ति अच्छी होती है; किन्तु अध्यात्मके किसी दृष्टिकोण, आरती या कोई श्लोक या मन्त्र उन्हें ध्यानमें नहीं रहते हैं ! गत अनेक वर्षोंके शोधसे इस निष्कर्षपर आई हूं अर्थात वहां जानेपर, कुछ वर्ष रहनेपर विवेक नष्ट हो जाता है और बुद्धि आसुरी हो जाती है ! आप सोच रहे होंगे कि यह कैसे सम्भव है ? अवैदिक संस्कृति अनुसार (पाश्चात्य या मुसलमानी) आचरण करनेसे योग्य और अयोग्य, उचित और अनुचित, धर्म और अधर्म, सात्त्विकता और तामसिकतामें भेद करनेकी क्षमता समाप्त हो जाती है अर्थात विवेक नष्ट हो जाता है । उपासनाके आश्रममें विदेशमें रहनेवाले हिन्दू आते रहते हैं, उन्हें कितना भी ‘सात्त्विकता’, यह शब्द समझाया जाए, उन्हें वह समझमें नहीं आता है, वे त्वरित ही वापस अपने तमोगुणी ढर्रेमें आ जाते हैं । जैसे वस्त्रका चुनाव करना हो तो वे जो सबसे तामसिक वस्त्र होगा वही चुनेंगे, भोजनका चुनाव करना हो तो भी उनका चुनाव वैसे ही होता है !
एक ६०% आध्यात्मिक स्तरके साधकको मैंने कहा आप फेसबुकपर अपना छायाचित्र जो ‘फोटोशॉप’ करके डालते हैं, वे तामसिक होते हैं, उससे स्पन्दन ठीक नहीं आते हैं; अतः ऐसा न किया करें ! उन्हें सब प्रयोग करके भी दिखाया; किन्तु पन्द्रह दिवस पश्चात उन्होंने पुनः ऐसा ही किया ! वे तीस वर्षसे साउथ अफ्रीकामें रह रहे हैं, उनपर इतना आवरण है कि उन्हें सात्त्विकता शब्द समझमें ही नहीं आता है, जबकि उनका नामजप अखण्ड चलता है । एक दूसरे ६०% स्तरके साधक, मेरे लिए मधु (शहद) लेकर इटलीसे आए थे, उनका अपना विक्रय-भण्डार (डिपार्टमेण्टल स्टोर) है; उन्होंने कहा, “ये विशेष फूलोंके मकरन्दद्वारा बने हैं, इसमें विशेष पौष्टिकता है । आपको वैद्यने मधु खानेके लिए कहा है; इसलिए मैं लेकर आया हूं ।” मैंने जैसे ही उसे चखा, उसे सर्वप्रथम एक आसुरी सूक्ष्म दुर्गन्ध आई और उसके पश्चात मात्र दो बून्द चखनेसे मुझे उदरमें वेदना होने लगी और मितली आने लगी ! उस साधकका कहना था कि वह वहांका सर्वश्रेष्ठ मधु है, तो आप समझ सकते हैं कि वह निश्चित ही अत्यधिक मूल्यवान भी होगा ! मैंने उन्हें बताया कि वह मधु तामसिक हैं; किन्तु उन्हें वह बात समझमें नहीं आई; क्योंकि उनके अनुसार मधु तो मधु होता है; किन्तु यदि पुष्प तामसिक हो तो मधु तो तामसिक ही होगा ! वस्तुत: मधु पञ्चामृतमेंसे एक है; अतः वह शुद्ध, पवित्र और सात्त्विक माना गया है; किन्तु विदेशमें वह भी तामसिक होता है ! मैंने उस मधुको सूक्ष्म प्रयोगके लिए रखा है । भारतीय सामान्य शुद्ध मधु और विदेशके सर्वश्रेष्ठ मधुमें क्या अन्तर है ?, इसका वैज्ञानिक उपकरणसे प्रयोग कर, बुद्धिभ्रष्ट-बुद्धिजीवियोंको समझानेमें थोडी सहायता मिल जाती है ! जब भी विदेशसे कोई साधक आते हैं तो वे मुझसे बडे आग्रहपूर्वक पूछते हैं कि वे मेरे लिए क्या लाएं ?, तो मुझे समझमें नहीं आता कि क्या कहें ? कि आपके यहांकी सर्व वस्तुएं आसुरी होती हैं और मेरे किसी उपयोगकी नहीं होती है !
वहांके दूधमें भी एक आसुरी दुर्गन्ध पाई थी, जिसकारण मैं अनेक बार विदेश जानेपर उसे कभी चखा भी नहीं । धीरे-धीरे मुझे समझमें आने लगा कि विदेश जाकर भारतीयोंकी बुद्धि मायामें द्रुत गतिसे क्यों चलती है और अध्यात्ममें आकर वे किंकर्त्तव्यविमूढ क्यों हो जाती है ? और मुझे यह भी समझमें आया जो विदेशी सचमें साधना करना चाहते हैं, वे भारतमें ही क्यों बसना चाहते हैं ? आप किसी भी तीर्थक्षेत्रमें चले जाएं, वहां आपको विदशी साधक सहज ही दिखाई देंगे !
जब ५०% से ऊपरके स्तरके साधकोंकी यह दुर्दशा है तो निम्न स्तरके साधकोंकी क्या दुर्दशा होती होगी ?, यह आप स्वयं समझ सकते हैं ! वैसे यही स्थिति आधुनिकतामें रंगे महानगरोंमें रहनेवाले हिन्दुओंकी भी है, मात्र यहां सन्तोंके स्थूल अस्तित्वका उनपर अंशमात्रमें ही सही; परन्तु होता अवश्य है । – तनुजा ठाकुर (क्रमशः)



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