मेरे लेखोंके एक पाठकने पूछा है कि जब अध्यात्म और साधना सम्बन्धित लेख पडता हूं तो मनको आनन्द और शान्तिका अनुभव होता है; परन्तु जब सामाजिक जागृति सम्बन्धित आपके लेख पढता हूं तो उससे क्षात्रवृत्तिकी भावना जागृत हो जाती, आप अपने लेखोंमें इतना विपरीत भाव कैसे ला पाती हैं ?
उत्तर : सब कुछ हमारे ध्येयपर निर्भर करता है | मेरा व्यष्टि साधनाका ध्येय है निर्विकल्प समाधि साध्य करना इसलिए मैं अपने श्रीगुरुसे जुडी थी; परन्तु श्रीगुरुने अनुसार उस ध्येयतक पहुंचनेका सरल और लघु पथ है, हिन्दू धर्मकी पुनर्स्थापनाके कार्यमें यथाशक्ति योगदान देना ! मैं साधना करती हूं, आत्मकल्याणके लिए, यदि मेरे साधना व अध्यात्म सम्बन्धित लेख पढकर आपको आनन्द और शान्तिकी अनुभूति न हो तो मैं साधना नहीं ढोंग करती हूं, यह जान लें ! समाजकी स्थितिका तो आपको ज्ञान ही है कि किस प्रकार आज हिन्दू नेत्र खोल कर सो रहा है, उसका विवेक सुप्त अवस्थामें है, सोये हुएको जगाना सरल है; परन्तु जो नेत्र खोलकर सो रहा उसे जगाने हेतु लेखोंमें क्षात्रभाव डालना ही पडता है ! अन्यथा मेरी समष्टि साधना नहीं होगी और वह न होगी तो व्यष्टि ध्येयकी पूर्ति कैसे सम्भव होगी !!
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