हमारी संस्कृति, गौ आधारित थी, ऐसा क्यों कहा जाता था ?


भारतवर्षमें प्राचीन कालसे ही गोधनको मुख्य धनके रूपमें मान्यता प्राप्त है और सभी प्रकारसे गौ रक्षा, गौ सेवा एवं गौ पालन भी यहांके लोग करते आए हैं । शास्त्रों, वेदों, आर्ष ग्रथोंमें गौरक्षा, गौ महिमा, गौपालन आदिके प्रसंग भी अधिकाधिक मिलते हैं। रामायण,
महाभारत, भगवतगीतामें भी गायका किसी न किसी रूपमें उल्लेख मिलता है। गायका जहां धार्मिक आध्यात्मिक महत्त्व है, वहीं कभी प्राचीन कालमें भारतवर्ष में गोधन एक परिवार, समाजके महत्त्वपूर्ण धनोंमें से एक है और राजाको गोधनका रक्षक माना जाता था ।

गोमाता संस्कार देती है दोहनका, दोहन अर्थात् अपनी आवश्यकताके अनुरूप ही संसाधनोंका उपयोग । जिस प्रकार गायका दूध निकालते समय बछडेकी आवश्यकताको संवेदनाके साथ देखा जाता है उसी प्रकार जीवनके सभी क्रिया-कलापोंमें भोगको नियंत्रित करनेका संस्कार ‘दोहन’ देता है । आज सारी व्यवस्था ही शोषणपर आधारित हो गई है । इस कारण सम्पन्न व विपन्नके मध्य की खाई बढती जा रही है । गोमाताके मातृत्वको केन्द्रमें रखकर बनी व्यवस्थासे ही “सर्वे भवन्तु सुखिन:” को साकार करना सम्भव हो सकेगा । इसी आदर्शको प्रस्थापित करने हमारे ज्ञानी ऋषि एवं पूर्वजोंने गायकी पूजा की ।
गायोंकी प्रचुरताके कारण ही भारतभूमि यज्ञभूमि बनी है, परंतु आज हमने गायोंको दुर्लक्षित कर दिया है इसी कारण देशके त्राहि मांकी स्थिति निर्माण हो गयी है। गायके सान्निध्य मात्रसे ही मनुष्य प्राणवान बन जाता है । आज हमारे शहरी जीवनसे हमने गायको कोसों दूर कर दिया है । परिणाम स्पष्ट है मानवता त्राहि-त्राहि कर रही है और दानवता सर्वत्र हावी है – तनुजा ठाकुर



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