अपने घरमें दाएं नहीं अपितु बाएं सूंडवाले गणेशको क्यों रखें ?


इस तथ्यको सुपष्ट रूपसे बताने हेतु मैं धर्मप्रसारके मध्य हुई कुछ अनुभूतियोंको सर्वप्रथम आपसे साझा करती हूं, उसके पश्चात उसका शास्त्र बताउंगी, जिससे आपको विषय अच्छेसे समझमें आ जाए ।
१. ख्रिस्ताब्द २००१ में मैं सुल्तानपुरमें धर्मप्रसारकी सेवा कर रही थी । एक दिवस मैं एक व्यक्तिके घर प्रवचन हेतु गई । प्रवचनके पश्चात उनकी तीन युवा पुत्रियोंकी मुझसे बातचीत हुई और कुछ क्षणोंमें ही आत्मीयता भी हो गई । उनके आग्रह करनेपर मैं रात्रि उनके घर रुक गई । अगले दिवस उनकी ज्येष्ठ पुत्रीने कहा, “हमारे घरमें सभीमें परस्पर बहुत प्रेम है; किन्तु पता नहीं क्यों बिना कारण सभीको क्रोध आता है, विशेषकर हमारी माताजी और दादीमें बिना बात किए ही तनाव हो जाता है और घरका वातावरण बहुत बिगड जाता है ।” उन्होंने पिछले दिवस ही सत्संगमें पूजाघरकी रचनाके विषयमें प्रवचनमें सुना था तो उन्होंने कहा कि आप हमारे घरमें गणेशजीकी सूंड देखकर बताएं कि क्या वह सही है और क्या पूजामें कोई चूकके कारण तो ऐसा नहीं हो रहा है ? जब हमने उनके घरका निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि उनके पूजा घरके अतिरिक्त सभी कक्षोंमें दाहिने सूंडके गणेशजीके चित्र या मूर्तियां थीं । सत्संगमें मैं उन्हें दाहिने सूंडवाले गणेशके विषयमें बता ही चुकी थी; अतः उन्होंने वे चित्र हटा दिए और बायीं सूंडवाले गणेश, मात्र पूजाघरमें रखे । इससे उनके घरमें तनाव या कलहके वातवरणमें ५०% सुधार हो गया, ऐसा उन्होंने बताया । जब मैं एक सप्ताह पश्चात उनसे मिलने गई । शेष कलह व तनाव, उनके दोष और पितृदोषके कारण था; इसलिए उनमें सुधार योग्य प्रयत्न करनेपर ही सम्भव था ।
२. ख्रिस्ताब्द २००० में झारखण्डके बोकारो जनपदमें धर्मप्रसारकी सेवा करती थी । प्रसारके मध्य एक दिवस एक व्यक्तिके घर गई । दोनों पति-पत्नी साधक वृत्तिके थे । थोडे समयमें ही वे हमसे (सनातन संस्थासे) जुडकर साधना करने लगे । हमसे जुडनेके एक माह पश्चात एक दिवस जब मैं उनके घर गई तो सन्ध्याके सात बज रहे थे, उनका युवा पुत्र जो दसवीं कक्षामें था, वह घरपर नहीं था । जब मैंने पूछा कि वह कहां है तो वे दोनों दु:खी होकर कहने लगे “पिछले दो-तीन वर्षोंसे वह घरमें रहना ही नहीं चाहता है, विद्यालयसे आते ही वह घरसे अपने मित्रोंके घर चला जाता है और रात्रि नौ बजनेपर आता है, उसे कितना भी समझाते या डांटते हैं; किन्तु कुछ प्रभाव ही नहीं पडता है । वह अपने मित्रोंके घरपर पढता है, कहता है घरमें मेरा पढाईमें मन नहीं लगता है और मुझे रहनेका मन नहीं करता है । वह पढनेमें अच्छा है; इसलिए हम लोग उसे कुछ अधिक बोल भी नहीं पाते हैं ।” मैंने उनकी अडचन सुनकर उनके पुत्रके कक्षका निरीक्षण करनेका सोचा । जब गई तो देखा कि वहां दाहिने सूंडवाले गणेश उसके सिरहानेके ठीक सामने पूजाघरमें विराजमान हैं और पूजाघरसे प्रचण्ड शक्ति निकल रही है । मैं समझ गई उनके पुत्रको पूजा घरकी शक्ति सहन नहीं होती है; इसलिए वह अपने कक्षमें रहना नहीं चाहता है । मैंने उन्हें सब शास्त्र बताया और पूजावाले कक्षमें परिवर्तित करने हेतु कहा तथा दाहिने सूंडवाले गणेशको भी परिवर्तितकर बाएं सूंडवाले गणेशको लाने हेतु कहा । उनके दो ही कक्ष थे; इसलिए वे पृथक रूपसे पूजा घर बनानेमें असमर्थ थे और वे जो अपने मनसे शक्ति उपासना कर रहे थे, उसे रोककर उनके कुलदेवताकी साधना करने हेतु कहा । वे दोनों पति-पत्नी साधक वृत्तिके तो थे ही, उन्हें मुझसे स्नेह भी था; अतः उन्होंने त्वरित सब कुछ परिवर्तित किया एवं उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उनका पुत्र अब स्वतः ही घरमें रहकर पढाई करने लगा था और अन्य समय भी पूर्वकी भांति अपने घरमें रहता था और मित्रोंके घर कभी-कभी जाता था और उसने बताया कि अब उसकी एकाग्रतामें भी वृद्धि हुई है ।
३. ख्रिस्ताब्द २०१२ में धर्म यात्राके मध्य मैं चेन्नईमें थी । एक दिवस एक विद्यालयमें मेरा प्रवचन था । प्रवचनसे उस विद्यालयकी प्रधानाध्यापिका बहुत प्रभावित हुईं और अगले दिवस अर्थात रविवारको अपने घर भोजन हेतु हमें बुलाया । वे धनाढ्य वर्गसे थीं और उनका घर बहुत सुन्दर था; किन्तु उनके घर घुसते ही मेरे सिरमें बहुत भारीपन लगा, इतना कि मैं यह सोचने हेतु बाध्य हो गई कि इतनी शक्ति आ कहांसे रही है ? वे जब भोजनकी व्यवस्था करने गईं तो मैं उनके कक्षका निरीक्षण करने लगी । एक सजावटकी कपाटिकामें (शोकेस) बहुतसी छोटी-बडी गणेशकी मूर्तियां मुझे दिखाई दी । मैंने उनके पतिसे कहा, “लगता है आप दोनों गणेश भक्त हैं ?” उन्होंने कहा, “नहीं, हमें गणेशकी भिन्न प्रकारकी मूर्तियां संग्रह करनेमें विशेष रुचि है अर्थात यह हमारी ‘हॉबी’ है, ऐसा समझ सकते हैं । हम देश-विदेशमें जहां भी जाते हैं, गणेशजी प्रतिमा, हमें जहां भी दखाई दे, उसे ले लेते हैं । उसके पश्चात उन्होंने अपने दो और कक्षोंमें भी गणेशकी अनेक मूर्तियां दिखाई । उनके कक्षोंमें तो इतनी शक्ति थी कि जैसे मेरी गर्दन ही अकड गई । मैं संकोचमें पड गई कि इन्हें कैसे बताऊं कि अनजानेमें इनसे क्या चूक हो रही है ? मैं सब देखकर उनके बैठक कक्षमें गई । जब हमने भोजन कर लिया तो वे स्वतः ही बोल पडीं, कलका सत्संग बहुत अच्छा था । आपने बच्चोंको बहुत सरल भाषामें ऐसी बातें बताईं जो मुझे भी ज्ञात नहीं थीं । मैंने कहा, “आज हिन्दुओंको धर्मशिक्षण कहां दिया जाता है, जो धर्मकी बातें किसीको ज्ञात होंगीं ! थोडी बहुत जानकारी कथावाचकोंसे या इधर-ऊधर पढनेसे मिलती है या किसीके गुरु हों तो उनसे मिलती है, आपका निजी विद्यालय है और हमारे साधक आपके परिचित हैं; इसलिए कल प्रवचन हो पाया अन्यथा विद्यालयोंको हिन्दू धर्मकी शिक्षाको साम्प्रदायिक कहकर मना कर दिया जाता है । वहीं मौलवी और ‘फादर, मदर और सिस्टर’ निःसंकोच बच्चोंको ‘मदरसा’ और ‘कान्वेंट’में इस्लाम और ईसाई धर्मकी घुट्टी, वहां पढनेवाले बच्चोंको पिलाते हैं । उन्होंने हामी भरी और कहा, “ईश्वरने हमें बहुत दिया है; इसलिए हम सन्तोंका आदर करते हैं और प्रवचन-सत्संग हमारे विद्यालयमें करवाते रहते हैं; किन्तु इतना सब कुछ करनेपर भी हमें एक बहुत बडी समस्या है, मेरे पतिको पिछले बारह वर्षोंसे अनिद्रा दोष है, उन्हें न रातमें और न ही दिनमें नींद आती है । हमने अनेक लोगोंसे उपाय पूछा है और किया भी; किन्तु दो-चार दिवस पश्चात उन्हें पुनः कष्ट होने लगता है । मुझे लगा जैसे गणेशजीने मुझे अपनी बात कहनेकी सन्धि दे दी । मैंने उनसे कहा, “आप गणेशकी प्रतिमा कबसे एकत्रित कर रहे हैं ?” उन्होंने कहा हमें भिन्न स्थानोंपर जाना बहुत अच्छा लगता है और हम विश्वके अनेक देशोंमें जा चुके हैं व हम सभी स्थानोंसे गणेशकी प्रतिमा पिछले पन्द्रह वर्षोंसे एकत्रित कर रहे हैं ।” मैंने कहा, तो चलिए आपके गणेशजीका निरीक्षण करते हैं और मैंने पाया कि ५०% गणेशकी प्रतिमा विकृत थी और ४०% दाहिने सूंडवाली थी तथा लगभग २००० भिन्न आकारके गणेश उनके घरमें थे ! मैंने उनसे कहा, “आपके पतिको निद्रानाश आपके घरमें बढे हुए शक्ति तत्त्वके कारण है और वह दाहिने सूंडवाले गणेशसे आ रहा है ।” उन्हें यह विश्वास ही नहीं हुआ ! उन्होंने कहा, “हमारे घर इतने सन्त और संन्यासी आए, किसीने यह नहीं कहा और आप यह कैसे कह सकती हैं कि गणेशजीने मेरे पतिका निद्रा नाश किया है ?” मैंने उन्हें विकृत गणेशकी मूर्तियोंके बारे में बताया जो आपको भारतकी किसी भी सजावटकी सामग्रीवाले भण्डारमें (दूकानमें) मिल जाएंगी और साथ ही दायें और बाएं सूंडवाले गणेशके विषयमें बताया । उन्हें सब सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ । उन्होंने कहा, “अब इनका क्या करें ?” मैंने कहा, “शास्त्र तो कहता है कि आपको सभी विकृत आकारके एवं दाहिने सूंडवाली गणेश मूर्तियोंका विसर्जन करना चाहिए और मात्र पूजा घरमें बाएं सूंडवाले गणेशको रखना ही चाहिए ।” वे कहने लगे, “हम ऐसा नहीं कर सकते हैं । कुछ गणेशकी प्रतिमाएं जो हमने विदेशसे लीं है, वह चालीस या पचास सहस्र (हजार) रुपए की है, हम उन्हें विसर्जित नहीं कर सकते हैं ।” तो मैंने उन्हें दो गत्तेकी पेटीमें (कार्टन बॉक्स) लाने हेतु कहा और उनसे कहा कि एकमें विचित्र या विकृत गणेशकी प्रतिमाओंको रखें और दूसरेमें दाहिने सूंडवाले गणेशको रखें और उसे अपने शयन कक्षसे दूर कहीं रख दें ! उन्होंने अनमने मनसे वह किया, कहावत है ‘न मरता क्या न करता’ और तीसरे दिवस मैं जिनके घर रुकी थी, उनके यहांसे उनका सन्देश आया कि बारह वर्ष पश्चात मेरे पति दो रातसे अच्छेसे सो रहे हैं; इसलिए वे सन्ध्या समय मिलने आए और वे दोनों इतने प्रसन्न थे कि जैसे उन्हें निद्रा क्या मिल गई, भगवान मिल गया ! वस्तुतः उनके पतिका आध्यात्मिक स्तर ४५% था और घरमें जो शक्ति थी वह उस स्तरके व्यक्तिके लिए सहन करना कठिन था; अतः उस बढी हुई शक्तिके कारण उन्हें निद्रा नहीं आती थी ।
यह मैं आपको कथाएं नहीं बता रही हूं, सत्य घटनाएं बता रही हूं । १८ वर्ष घर-घर घूमकर भिक्षाका अन्न ग्रहणकर, धर्मप्रसार किया है; इसलिए असत्य वचनसे मेरी साधना नष्ट होगी, इसका मुझे भान है एवं मुझे अभी गुरुकार्य करना है; अतः अपनी साधनाका क्षय नहीं कर सकती । वस्तुत: ये सर्व अनुभूतियां ईश्वरने मुझे क्यों दीं हैं ?, अब मुझे उनका कारण ज्ञात हो रहा है ।
४.  ऐसे ही २०११ में मैं अपने विद्यालयकी एक सखीके घर कोलकातामें धर्मयात्राके मध्य रुकी थी । एक दिवस वह आग्रहकर मुझे अपने एक परिचितके ‘मॉल’में ले गई, जो मुख्य राजमार्गपर था और बहुत सुन्दर बना था; किन्तु उसकी भण्डार ईकाइयोंको दो वर्षसे कोई ग्राहक क्रय करने नहीं आ रहे थे और वे उसका कारण जानना चाहते थे । वैसे मैं ऐसे कार्योंके लिए नहीं जाती हूं; किन्तु विद्यालयकी सखी थी; इसलिए संकोचमें उसे मना नहीं कर पाई । वह ‘मॉल’ सचमें बहुत अच्छा बना था और मुख्य मार्गपर था, वहां अन्य भण्डार (दुकानें) भी थीं । जब मैं उस ‘मॉल’के भीतर गई तो प्रवेश स्थानपर ही एक विशाल दाहिने सूंडवाले गणेशकी प्राण प्रतिष्ठित प्रतिमा खडी थी । उससे इतनी शक्ति आ रही थी कि वहां कोई ग्राहक आ ही नहीं रहा था । मैंने उनसे पूछा, यह किसने रखवाया तो उन्होंने किसी गुरुजीका नाम लिया । उस मूर्तिकी विधि-विधानसे कोई पूजातक नहीं करता था । ऐसे होते हैं आजके अनेक गुरु, अपने अधपके ज्ञानसे समाजकी हानि करते हैं । मैंने उन्हें सब शास्त्र बताया तो वे आश्चर्यचकित हो गए !
मूर्ति विज्ञान स्पन्दनशास्त्रपर आधारित ज्ञान है । अब गुरुजीको सूक्ष्मका ज्ञान होता ही नहीं, थोडे ग्रन्थ रटकर, थोडा संगीत सीखकर, गुरुपदपर बैठ जाते हैं । स्पन्दन शास्त्र इत्यादिसे उन्हें क्या लेना-देना है ? भक्त मण्डली बढे, विशाल आश्रम कैसे बने ?, प्रसिद्धि कैसे पाएं ?, उन्हें इसमें अधिक रुचि होती है ।
अब आपको समझमें आया हमें क्यों कष्ट होता है, आज भी इस लेखको लिखनेसे पूर्व पौन घण्टे बेसुधसी पडी रही; किन्तु जाग्रत भवमें कल दोनों गणेशजीके चित्रको प्रेषितकर कहा था कि आज आप दोनों सूंडवाले गणेशका सूक्ष्मसे निरीक्षण करनेका प्रयास करें, कल आपको अपने लेखके माध्यमसे उत्तर दूंगी; इसलिए प्रार्थनाकर किसी प्रकार उठकर यह लेख लिख रही हूं । सूक्ष्म सम्बन्धी शास्त्र बताएंगे तो सूक्ष्म आघात होंगे ही, यह शास्त्र है !
तो आइए ! दोनों सूंडवाले गणेशमें क्या अन्तर है, यह बताते हैं
यह शास्त्र हमारे श्रीगुरुके ‘गणपति’ नामक ग्रन्थसे संकलित किया है ।
दाईं सूंड : जिस मूर्तिमें सूंडके अग्रभावका मोड दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति या दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं । यहां दक्षिणका अर्थ है दक्षिण दिशा या दाईं बाजू । दक्षिण दिशा यमलोककी ओर ले जानेवाली व दाईं बाजू सूर्यनाडीकी है। जो यमलोककी दिशाका सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है व जिसकी सूर्यनाडी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है ।
इन दोनों अर्थोंसे दाईं सूंडवाले गणपतिको ‘जाग्रत’ माना जाता है । ऐसी मूर्तिकी पूजामें कर्मकाण्ड के अन्तर्गत पूजा विधिके सर्व नियमोंका यथार्थ पालन करना आवश्यक है । उससे सात्त्विकता बढती है व दक्षिण दिशासे प्रसारित होनेवाली रज लहरियोंसे कष्ट नहीं होता ।
दक्षिणाभिमुखी मूर्तिकी पूजा सामान्य पद्धतिसे नहीं की जाती; क्योंकि तिर्य्‌क (रज) लहरियां दक्षिण दिशासे आती हैं । दक्षिण दिशामें यमलोक है, जहां पाप-पुण्यका लेखा-जोखा (हिसाब) रखा जाता है । इसलिए यह बाजू अप्रिय है । यदि दक्षिणकी ओर मुख करके बैठें या सोते समय दक्षिणकी ओर पैर रखें तो जैसी अनुभूति मृत्युके पश्चात अथवा मृत्यु पूर्व जीवित अवस्थामें होती है, वैसी ही स्थिति दक्षिणाभिमुखी मूर्तिकी पूजा करनेसे होने लगती है । विधि विधानसे पूजन न होनेपर यह श्रीगणेश रुष्ट हो जाते हैं ।
बाईं सूंड : जिस मूर्तिमें सूंडके अग्रभावका मोड बाईं ओर हो, उसे वाममुखी कहते हैं । वाम यानी बाईं ओर या उत्तर दिशा । बाईं ओर चन्द्रनाडी होती है । यह शीतलता प्रदान करती है एवं उत्तर दिशा अध्यात्मके लिए पूरक है, आनन्ददायक है । इसलिए पूजामें अधिकतर वाममुखी गणपतिकी मूर्ति रखी जाती है । इसकी पूजा प्रायिक पद्धतिसे की जाती है । इन गणेशजीको गृहस्थ जीवनके लिए शुभ माना गया है। इन्हें विशेष विधि-विधानकी आवश्यकता नहीं होती । ये शीघ्र प्रसन्न होते हैं । थोडेमें ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । चूक होनेपर क्षमा करते हैं ।
संक्षेपमें दाईं सूंडवाले गणेशसे शक्तिके स्पन्दन आते हैं और बाएं सूंडवाले गणेशसे आनन्दके स्पन्दन आते हैं । एक गृहस्थको शक्ति नहीं आनन्द चाहिए होता है; इसलिए उन्हें बाएं सूंडवाले गणेशकी उपासना करनी चाहिए ।
– (पू.) तनुजा ठाकुर (संस्थापिका, वैदिक उपासना पीठ)


One response to “अपने घरमें दाएं नहीं अपितु बाएं सूंडवाले गणेशको क्यों रखें ?”

  1. संजीव कु पुण्डीर says:

    अति सूक्ष्म जगत की जानकारी देने हेतु आपका आभार माँ…

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