घरका वैद्य – जल तत्त्वद्वारा प्राकृतिक चिकित्सा (भाग-४)


अभिज्ञान (पहचान)
१. श्वासद्वारा :  जब इस तत्त्वकी प्रधानता रहती है, श्वास बारह अंगुलतक चल रही होती है, इस समय स्वर भीगा चल रहा होता है ।
२. दर्पण विधिद्वारा : इसकी आकृति अर्धचन्द्र जैसी बनती है
३. स्वादद्वारा : जब यह स्वर चल रहा हो मुखका स्वाद कसैला प्रतीत होता है
४. रंगद्वारा : इसका रंग ध्यानमें चांदी जैसा प्रतीत होता है
बीज मन्त्र : वं और इस तत्त्वका सम्बन्ध स्वाधिष्ठान चक्रसे होता है ।
जल तत्त्वके असन्तुलनसे शरीरमें कई प्रकारके रोग घर कर लेते हैं जैसे जलोदर, अतिसार (पेचिश), संग्रहणी, बहुमूत्र, प्रमेह, स्वप्नदोष, सोमप्रदर, शीतप्रकोप (जुकाम), खांसी, मलावरोध (कब्ज), सिरकी वेदना, उच्च रक्तचाप, मूत्रमें जलन, शारीरिक ताप बढना, त्वचा रोग, बाल झडना, थकान होना, पथरी, मूर्छा, हिचकी आदि । इसलिए जलका सन्तुलित एवं आवश्यक मात्रामें सेवन आवश्यक होता है । शरीरके तापमानसे अधिक उष्ण (गरम) या अधिक शीतल जल हानि पहुंचाता है ।
जल हमारे शरीरको सींचता है; इसलिए मनुष्यको प्रतिदिन अपने शरीरके भार अनुसार ३ से पांच लीटर जल पीना आवश्यक होता है । जलमें ऐसे कितने ही रासायनिक तत्त्व पाए जाते हैं, जिनसे शरीरको पर्याप्त पोषण मिलता है । शरीरके भीतरके अनेक विकार इस पानीके साथ ही स्वेद (पसीना) और मूत्रके रूपमें बाहर निकल जाते हैं । पर्याप्त मात्रामें उचित विधिसे यदि अंग-प्रत्यंगोंको जल प्राप्त होता रहे तो शारीरिक स्वास्थ्यके सुदृढ रहनेमें बडी सहायता मिलती है |


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