काशीमें गंगाके तटपर एक संतका आश्रम था। एक दिन उनके एक शिष्य ने पूछा, ‘गुरुवर, शिक्षाका सार क्या है?’ संतने मुस्करा कर कहा, ‘एक दिन तुम स्वयं जान जाओगे।’ बात आई और गई । कुछ समय पश्चात एक रात्रि संतने उस शिष्यसे कहा, ‘वत्स, इस पुस्तकको मेरे कमरेमें रख दो।’ शिष्य पुस्तक लेकर कमरे में गया लेकिन तत्काल लौट आया। वह डरसे कांप रहा था। संत ने पूछा, ‘क्या हुआ? इतना डरे हुए क्यों हो?’ शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, कमरेमें सांप है।’
संत ने कहा, ‘यह तुम्हारा भ्रम होगा। कमरेमें सांप कहांसे आएगा। तुम पुनः जाओ और किसी मंत्रका जाप करना। सांप होगा तो भाग जाएगा।’ शिष्य पुनः कमरे में गया। उसने मंत्रका जाप भी किया परंतु सांप उसी स्थानपर था। वह डर कर बाहर आ गया और संतसे बोला, ‘सांप वहांसे जा नहीं रहा है।’ संत ने कहा, ‘इस बार दीपक लेकर जाओ। सांप होगा तो दीपकके प्रकाशसे भाग जाएगा।’
शिष्य , इस बार दीपक लेकर गया तो देखा कि वहां सांप नहीं है। सांपकी स्थानपर एक रस्सी लटकी हुई थी। अंधकारके कारण उसे रस्सीका वह टुकडा सांप दिखाई दे रहा था। बाहर आकर शिष्यने कहा, ‘गुरुवर, वहां सांप नहीं रस्सीका टुकडा है। अंधेरेमें मैंने उसे सांप समझ लिया था।’ संतने कहा, ‘वत्स, इसीको भ्रम कहते हैं। संसार गहन भ्रम जालमें जकडा हुआ है। ज्ञानके प्रकाशसे ही इस भ्रम जालको मिटाया जा सकता है परंतु अज्ञानताके कारण हम अनेक सारे भ्रम जाल पाल लेते हैं और आंतरिक दीपकके अभावमें उसे दूर नहीं कर पाते। यह आंतरिक दीपकका प्रकाश संतों और ज्ञानियोंके सत्संगसे मिलता है। जब तक आंतरिक दीपकका प्रकाश प्रज्वलित नहीं होगा, लोग भ्रमजालसे मुक्ति नहीं पा सकते।
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