गुरु या सन्त किसे नहीं मिलते हैं ? (भाग – १)


अति बुद्धिवादीको गुरु नहीं मिलते हैं !

 जो व्यक्ति अपनी बुद्धिका आवश्यकतासे अधिक उपयोग करते हैं, वे सन्तोंको भी बुद्धिसे समझनेका ‘निरर्थक’ प्रयास ही नहीं करते हैं, मैंने तो देखा है कि वे बिना साधनाके आधारके या बिना शास्त्रोंको आत्मसात किए, सन्तोंसे वाद-विवाद भी करते हैं, शास्त्रार्थ शब्दका प्रयोग इसलिए नहीं कर रही हूं; क्योंकि शास्त्रार्थ तो आद्य गुरु शंकराचार्य और मंडन मिश्र जैसोंमें होता और परिणाम क्या होता है ?, इसका साक्षी तो इतिहास है ही ।

  गुरुसे या सन्तसे अपनी शंकाओंका समाधान कराना अनुचित नहीं है; क्योंकि अर्जुनने भी अपनी शंकाओंका समाधान अपने श्रीगुरु, भगवान श्रीकृष्णसे कराया था; किन्तु गीतामें अर्जुनके प्रश्न पूछनेकी पद्धति देखें, कैसे सीखनेकी वृत्ति, विनम्रता एवं शरणागत भावसे वे प्रश्न करते हैं ! किन्तु मैंने देखा है, अनेक बुद्धिवादी मात्र सन्तका कथन या वचन कैसे अनुचित है, यह सिद्ध करने हेतु प्रश्न करते हैं या उसमें मात्र त्रुटियां ढूंढते रहते हैं !

  बुद्धिके परे जा चुके द्रष्टा एवं तत्त्ववेत्ता श्रीगुरुके क्रिया-कलापको बुद्धिसे समझना असम्भव है । बुद्धिवादी अपनी बुद्धिके भ्रमजालमें फंसकर, सन्तोंकी बातोंका बुद्धिसे आकलन करते हैं और परिणामस्वरूप उनके हाथ मात्र विकल्प लगता है ! सन्तोंको समझने हेतु अनेक वर्षोंकी (जिसे अनेक जन्म कहना अधिक उचित होगा) व्यष्टि साधनाका ठोस आधार या सूक्ष्म इन्द्रियोंका विकसित होना या ईश्वरके प्रति अनन्य भाव आवश्यक होता है !

गुरु किसे नहीं मिलते हैं, उसके अन्य घटक भी हैं जो भविष्यके लेखोंमें बताऊंगी । यदि आपके जीवनमें गुरु नहीं हैं और आपको गुरु चाहिए तो इन लेखोंको अन्तर्मुख होकर पढें और जो घटक इसमें बाधक बन रहे हैं, उन्हें दूर करनेका प्रयास करें !



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