गुरुको स्तुति करने वाले नहीं, मनसे सेवा भाव वाले शिष्य प्रिय होते हैं


धर्मप्रसारके मध्य एक सन्तके आश्रममें मेरा कभी-कभी जाना होता था । उस आश्रमके सन्तने देह-त्याग पूर्व ही एक फलकमें लिखवा दिया था कि उन्होंने किसीको उत्तराधिकारी नहीं घोषित किया था । मेरे मनमें प्रश्न निर्माण होता था कि उनके और उनके गुरुके सहस्रों भक्तोंमें क्या कोई नहीं था, जिन्हें वे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकें ? कुछ समय उस आश्रममें सम्पर्कमें रहनेपर मुझे ध्यानमें आया कि उस आश्रमके भक्त सभी अत्यधिक आलसी और भोगी प्रवृत्तिके थे, सभी मात्र अपने गुरुके सम्बन्धमें बातें करनेमें रुचि लेते थे; किन्तु आश्रममें कोई सेवा नहीं करते थे । पूर्ण आश्रमका उत्तरदायित्व अब ऐसे सेवक करते हैं, जिन्हें साधना इत्यादिमें कोई रुचि नहीं थी, वे तो मात्र वहां अपने जीविकोपार्जन हेतु चाकरी करते हैं ! मुझे समझमें आ गया कि वहां भक्त तो बहुत थे; किन्तु साधक या शिष्यके गुणवाले गुरुको प्रिय कोई भक्त नहीं था; अतः उस आश्रमके गुरु स्थानपर विराजमान सन्तने आश्रमको उनके देह-त्यागके पश्चात चलाने हेतु पर्याप्त धन कोषागारमें एकत्रित करवा, एक न्यास बनाकर उसकी देखभालका उत्तरदायित्व कुछ भक्तोंको दे दिया था, जिसे उनके गुरुके स्थानकी सेवा नियमित होती रहे !
इस प्रसंगसे यह ध्यानमें आया कि गुरुको मात्र स्तुति करनेवाले भक्त प्रिय नहीं होते, वे तो अपने ज्ञान, भक्ति और वैराग्यकी थाती उसे देते हैं, जिस शिष्यमें उनके मनमें जो होता है, उसे करनेकी तीव्र लगन होती है !  



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