श्रीगुरुसे प्रत्यक्ष एवं प्रथम साक्षात्कारके समय उनकी सर्वज्ञतासे सम्बंधित हुई अनुभूतियां


गुरु संस्मरण

  १. श्रीगुरुसे प्रत्यक्ष प्रथम साक्षात्कार : जिस दिन मैं उनके प्रथम दर्शन करने गई थी, उस दिवस अर्थात् २१ मई १९९७ को भारत और पाकिस्तानका एक-दिवसीय ‘क्रिकेट’ क्रीडा(खेल) थी, अन्य युवा-वर्गके समान मुझे भी ‘क्रिकेट’ देखनेमें अत्यधिक रुचि थी l क्रीडा दिवस-रात्रिका था, मैं कार्यालयसे घर आकर दूरदर्शन-संचपर यह क्रीडा(खेल) देख रही थी l इस क्रीडाको देखनेमें इतनी अधिक रूचि थी कि मैंने एक साधकको विगत दिवस ही बता दिया था कि मैं अगले दिवस सेवाके लिए नहीं आ पाउंगी । वैसे जबसे मैं श्रीगुरुके एक साधकद्वारा संचालित सत्संगमें जाने लगी थी, तबसे प्रतिदिन धर्म-प्रसारकी सेवा कार्यालयके पश्चात् किया करती थी । घर आकर क्रीडा देखते हुए आधा घण्टा ही हुआ था कि मेरा मन विचलित होने लगा । क्रीडा देखनेकी इच्छा नहीं हो रही थी, ऐसा लग रहा था कि कोई मुझे बुला रहा हो । दूरदर्शन-संचको बंद कर, जिस साधकके साथ प्रतिदिन प्रसारकी सेवा-हेतु मिलती थी, उस स्थलपर मैं गई तो देखा कि वे सचमें अकेली थीं और किसी साधककी प्रसारकी सेवामें जाने हेतु प्रतीक्षा कर रही थी, जो किसी कारणवश नहीं पहुंच पाए थे l उन्हें, मुझे देखकर आनन्द भी हुआ और आश्चर्य भी । उन्होंने मुझसे कहा कि आप तो नहीं आनेवाली थीं तो यहां कैसे आ गयीं ? मैंने मुस्कुराते हुए कहा कि क्या करूं आपने मुझे यहां आनेके लिए बाध्य कर दिया ।
हम दोनोंने एक घण्टे प्रसारकी सेवाकी, उसके पश्चात् उन्होंने कहा कि मुझे परम पूज्य गुरुदेवके मुम्बईके सायनमें स्थित आश्रममें कुछ सेवाके लिए जाना है, क्या आप भी मेरे साथ आना चाहेंगी ? उस समय परम पूज्य गुरुदेव मुम्बईके सायन क्षेत्रमें रहते थे । मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था; क्योंकि दो मास पूर्व, जब मैंने परम पूज्य गुरुदेवके दर्शन हेतु इच्छा जताई थी तो उन्होंने कहा था कि सन्त दर्शन हेतु अपनी पात्रता बढानी होती है और उसके लिए हमें नामजप, धर्मप्रसारकी सेवा करनी पडती है और पात्रता-निर्माण होनेपर ही उनके दर्शन एवं मार्गदर्शनका सौभाग्य प्राप्त हो सकता है । यद्यपि मैंने संस्थाका फलक देखा था; परन्तु कुछ अडचनें आनेके कारण मैं वहां नहीं जा पा रही थी ।  फलक देखनेके चार मास पश्चात् एक निकट सम्बन्धीके माध्यमसे परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेद्वारा लिखित ग्रन्थ पढकर ‘सनातन संस्था’के सत्संगमें गई थी और ग्रन्थमें बताए गए ज्ञान और लेखन शैलीसे मैं इतनी प्रभावित थी कि मैं उनसे त्वरित  ही भेंट करना चाहती थी । यथार्थ तो यह है कि सत्संगके सम्बन्धमें ज्ञात होनेपर भी जैसे कोई अदृश्य शक्ति मेरा मार्ग अवरुद्ध रही थी और मैं चाहकर भी कोई न कोई अडचनके कारण सत्संगमें नहीं जा पा रही थी । श्रीगुरुद्वारा लिखित ग्रन्थ पढने मात्रसे ही सारी बाधाओंको पारकर मैं सत्संगमें पहुंच पाई थी और जब मैंने परम पूज्य गुरुदेवसे साक्षात्कारकी बात कही, तब इन्हीं साधिकाने कहा था कि उनके दर्शन हेतु हमें साधक बननेका प्रयास करना होगा और साधकत्व-निर्माण करने हेतु, मैंने सत्संग-सेवकके मार्गदर्शनमें साधना आरम्भ कर दी थी ।
जब एक बार मैंने उनसे पूछा था कि उनके दर्शन हेतु पात्रता कितने दिनोंमें निर्माण हो सकती है तो वे मुस्कुराकर बोलीं कि यह आपकी तडप और प्रयासपर निर्भर करता है और साथ ही यह भी कहा कि कभी-कभी वर्षों तक प्रयास करने पडते हैं; अतः जब उन्होंने मुम्बईके सायन-आश्रममें साथ जानेके लिए पूछा तब मुझे उनकी इस बातपर विश्वास नहीं हो रहा था कि मात्र दो मासके प्रयासमें ही मुझे परम पूज्य गुरुदेवके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हो जाएगा । मैं अत्यधिक आनन्दित हो गई और उनके साथ सायन आश्रम पहुंची ।
हमारी उन केन्द्र-सेविकने जाते समय यह भी कहा था कि हो सकता है कि परम पूज्य गुरुदेव व्यस्त हों और मुझे मात्र उनके दर्शनसे ही सन्तोष करना पडे और उनका मार्गदर्शन एवं सत्संग न मिल पाए । मैं उसके लिए भी सहमत थी; परन्तु वहां पहुंचनेपर ऐसा भान हुआ, जैसे श्रीगुरु भी मेरा मार्ग देख रहे हों । मुझे आज भी उस दिवसका स्मरण है, जब घरमें क्रीडा देखते समय, मेरा मन विचलित हो रहा था, जैसे मुझे कोई बुला रहा हो एवं इसका आभास अत्यन्त सुस्पष्टतासे हो रहा था । आज भान होता है कि वह गुरु-शिष्यके मिलनकी घडी थी, जिसका मेरी जीवात्माको भान हो गया था, अन्यथा मैं क्रिकेटके प्रति ऐसी आसक्त थी कि उसे छोडकर कभी भी कहीं नहीं जा सकती थी । इस प्रकार मेरे श्रीगुरुसे प्रथम साक्षात्कार हुआ और वह मेरे जीवनका एक अविस्मर्णीय दिवस है ।
२. प्रथम साक्षात्कारके समय हुईं कुछ दिव्य अनुभूतियां प्रथम दर्शनके समय हुई अनुभूतियोंसे सबंधित संस्मरण
२१ मई १९९७ में मुझे मेरे श्रीगुरु परम पूज्य डॉ. जयंत बाळाजी आठवलेके प्रथम दर्शन एवं सत्संगका सौभाग्य प्राप्त हुआ l प्रथम दर्शनमें ही अनेक अनुभूतियोंके माध्यमसे उन्होंने अपनी सर्वज्ञताका परिचय दे दिया l उनके प्रथम दर्शनके समय हुई कुछ अनुभूतियां सर्वप्रथम आपके समक्ष प्रस्तुत करती हूं l
२. अ. गुरुके एक वाक्यने नष्ट कर दिए क्रिकेट क्रीडा देखनेके तीव्र संस्कार : जब मैं आश्रम पहुंची तो वे बडे स्नेहसे मुझसे मिले, उन्हें प्रणाम करनेके पश्चात् उनका प्रथम प्रश्न था कि आज तो भारत-पाकिस्तानके मध्य क्रिकेटकी क्रीडा थी, ऐसेमें आप यहां कैसे आ गईं ? जैसे मानो किसीने उन्हें बता दिया हो कि मैं क्रिकेटके प्रति अत्यधिक आसक्त हूं और आगे उन्होंने कहा कि जब तक भारत आध्यात्मिक रूपसे सक्षम नहीं होता, उसे प्रत्येक क्षेत्रमें सदैव पराजयका मुख देखना पडेगा और उस दिन भारत क्रिकेटकी क्रीडामें हार गया । यह बात जब हम आश्रमसे निकलकर बाहर आए तो एक व्यक्ति जो खेलका ‘आंखों-देखा हाल’ रेडियोपर सुन रहा था, उससे ज्ञात हुआ ।
इस प्रसंगसे एक और महत्त्वपूर्ण परिवर्तन मेरे जीवनमें आया, उस दिनके पश्चात् क्रिकेटके खेलमें मेरी रुचि पूर्णतः समाप्त हो गई, सत्य तो यह है कि गुरुकी एक दृष्टि ही हमारे मनके दृढ एवं अनावश्यक संस्कारोंको नष्ट करनेमें सक्षम होते हैं और इसकी मुझे प्रत्यक्ष प्रतीति मिली ।  इस प्रकारकी अनुभूतियां सन्तोंद्वारा प्रक्षेपित चैतन्यके कारण होता है । इसका मुझे भान हुआ । क्रिकेट देखनेके कारण मेरे जीवनका महत्त्वपूर्ण समय नष्ट हो रहा है, इसका मुझे तीव्रतासे भान होता था; किन्तु मैं अपनी इस रुचिको छोड नहीं पा रही थी और मात्र परम पूज्य गुरुदेवके एक वाक्यसे यह चमत्कार स्वतः ही हो गया ।
२. आ.  श्रीगुरुका मेरे मनकी सर्व बातें बताकर अपनी सर्वज्ञताका सहज परिचय देना : उस दिन मुझे उनका लगभग ४५ मिनिटका सत्संग प्राप्त हुआ और उस मध्य उन्होंने स्वयं ही मुझे जलपान लाकर दिया, उसमें एक मिठाई भी थी । मुझे मिष्टान्न रुचिकर (पसंद) है; अतः मैं उसे अन्तमें ग्रहण करनेका सोच ही रही थी तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि आपको भी मेरी भांति मीठा रुचिकर है न, उनकी बात सुन, मैंने हामी भरी और मुस्कुराने लगी । जलपान आरम्भ करते समय विचार आया कि सन्तके हाथसे प्रसाद मिला है, इसे अपने साथ घर भी ले जाऊंगी, उसी क्षण उन्होंने कहा कि आप इस प्रसादको ग्रहण करें, घर ले जानेके लिए मैं और मिठाई दे दूंगा । उनकी यह बात सुन मैं पुनः मुस्कराने लगी और थालीके सम्पूर्ण प्रसादको ग्रहण कर लिया । उस दिन ऐसा लग रह था कि जैसे वे मेरे मनमें चलनेवाले प्रत्येक विचारको पढ रहे हों । उच्च कोटिके संत निर्विचार अवस्थामें रहते हैं; अतः सामनेवाले व्यक्तिका विचार उनके मनमें सहज ही प्रतिबिम्बित हो जाता है ।
२. इ.  लौकिक जगतकी सेवाका विचार नष्ट कर, श्रीगुरुने दी अलौकिक जगतकी सेवाकी प्रेरणा एवं सन्धि : उसके पश्चात् उन्होंने पूछा कि मैं भविष्यमें क्या करना चाहती हूं ? मैंने कहा कि मैं प्रशासनिक अधिकारी अर्थात् भारतीय प्रशासनिक सेवासे जुडकर समाजकी सेवा करना चाहती हूं, तब उन्होंने त्वरित ही कहा, ” अच्छा हुआ, आप अभी तक प्रशासनिक अधिकारी नहीं बनी हैं, अन्यथा कैसे-कैसे भ्रष्ट नेताओंकी छत्र-छायामें आपको कार्य करना पडता !” मैं प्रशासनिक सेवामें कुछ विशेष कारणसे जाना चाहती थी ।
मेरी बारहवींकी ‘बोर्ड’ परीक्षामें बिहारमें व्यापक स्तरपर भ्रष्टाचार हुआ था ।
‘बिहार इंटर कौंसिल’में बडे स्तरपर हुए भ्रष्टाचारके परिणाम-स्वरुप विद्यार्थियोंकी उत्तर-पुस्तिकाएं जांची ही नहीं गई थीं और सभी विद्यार्थियोंको मनमाने अंक दे दिए गए थे, जिस कारण मुझे ५८% अंक आए । मां सरस्वतीकी कृपासे सदा ९०% से ऊपर अंक आते थे; अतः इस घटनाने मुझे अन्दर तक झकझोरकर रख दिया और उसी मध्य मैंने व्यवस्था-परिवर्तन करनेके लिए प्रशासनिक अधिकारी बन, भ्रष्टाचार मिटानेका संकल्प लिया था ।
भ्रष्ट, अन्यायी, झूठे व्यक्ति मुझे तनिक भी नहीं सहन होते हैं, इसका आभास भी मेरे श्रीगुरुको था । जब परम पूज्य गुरुदेवने यह कहा कि अच्छा हुआ, आप अभी तक प्रशासनिक अधिकारी (I.A.S.) नहीं बनीं हैं, तब मुझे ध्यानमें आया कि मुझे उस ध्येय तक पहुंचनेमें अनेक विचित्र बाधाएं आ रही थीं एवं मुझे भान हुआ कि कहीं-न-कहीं श्रीगुरु ही मुझे उस मायाजालमें जानेसे रोक रहे थे । गुरुको यह ज्ञात होता है कि उनके शिष्यके लिए क्या योग्य है और क्या अयोग्य; अतः शिष्यके जीवनमें स्थूल रूपमें प्रवेश करनेसे पूर्व ही वे शिष्यकी प्रत्येक महत्त्वपूर्ण घटनाओंपर दृष्टि रखते हैं । उनके इस वाक्यमें न जाने क्या था कि उस दिवसके पश्चात् मेरे सिरसे ‘प्रशासनिक अधिकारी’ बननेका ‘भूत’ पूर्णतः उतर गया और एक समयमें ‘लौकिक सत्ता’की सेवाके माध्यमसे व्यवस्था-परिवर्तनका स्वप्न देखनेवाली मैं, उस दिवसके पश्चात् आनन्दपूर्वक श्रीगुरुकी शरणमें साधनाकर स्व-कल्याण एवं राष्ट्र तथा हिन्दू धर्म उत्त्थान हेतु उस अलौकिक सत्ताकी सेवा करने हेतु प्रेरित हुई और आज इसे मैं अपना सौभाग्य मानती हूं । उस दिन मुझे लगा कि प्रथम बार आज किसी ऐसे व्यक्तित्त्वसे मिली हूं, जो मेरी क्षमता एवं मेरे आन्तरिक भावनाओंको समझ सकते हैं और इसकी प्रतीति आज भी मुझे स्पष्टतासे होती है ।
उन्हें मेरी स्थूल और सूक्ष्म क्षमताका पूर्ण भान था । ख्रिस्ताब्द २००० से चलनेवाले सूक्ष्म युद्धमें उन्होंने मुझे सहभागी किया, इस सूक्ष्म युद्धका आगे चलकर सम्पूर्ण व्यवस्था-परिवर्तनमें अभूतपूर्व योगदान रहेगा । मैं तो स्थूलसे व्यवस्था परिवर्तनके सम्बन्धमें सोच रही थी; परन्तु मेरे श्री गुरुने मुझे उससे भी आगेकी सेवा करवा ली । वस्तुतः सद्गुरुको ज्ञात होता है कि शिष्यकी आध्यात्मिक प्रगति हेतु सर्वोत्तम सेवा क्या हो सकती है ! – तनुजा ठाकुर ( आगामी ग्रन्थ ‘गुरु संस्मरण’से उद्धृत)



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