श्रीगुरुकी महिमा


गुरु संस्मरण
अ. जब गुरु संस्मरण सुन एक साधकका कष्ट समाप्त हो गया :
जनवरी २००१ में मैं, सनातन संस्थाके शिविरमें महाकुम्भमें प्रयाग गई थी । धूल और ठण्डके कारण वहां मुझे अत्यधिक खांसी हो गई और महाकुम्भसे आनेके दो माह पश्चात् तक खांसी ठीक ही नहीं हो रही थी । मैं उस समय धनबाद और बोकारो, झारखण्डके इन दो जनपदोंमें धर्मप्रसारकी सेवा किया करती थी और साधकोंके घरपर ही रहती थी । मेरी खांसी देखकर जिन साधकोंके घरमें रहती उन्हें अत्यधिक कष्ट होता था और वे हर सम्भव उपाय, मेरी खांसीके ठीक होने हेतु कर चुके थे । आयुर्वेदिक, अङ्ग्रेजी औषधि, घरेलू उपाय, होमियोपेथी, मग्नेटोथेरेपी, एक्यूप्रेशर और न जाने क्या-क्या ! एक्सरे करवानेपर भी कुछ नहीं निकला और खांसीमें एक विचित्रता थी कि खांसी मुझे तब तक होती रहती थी जब तक मैं पूर्णतः थक न जाऊं । इस प्रकार ढाई मास निकल गए, एक दिन गोवासे एक हमारे ज्येष्ठ साधकका दूरभाष आया और बात करते समय मुझे खांसी होने लगी और मैं उनसे बात नहीं कर पाई; अतः उन्होंने थोडी देर पश्चात् बात करनेका निर्णय लेकर दूरभाष रख दिया, दस मिनिट पश्चात् उन्होंने जब पुनः दूरभाष किया तो भी मैं खांस ही रही थी, उन्होंने पूछा ‘यह कबसे हो रहा है ?’, मैंने कहा, “लगभग ढाई मास हो गए !” उन्होंने पूछा “औषधि ले रही हैं क्या आप ?” तब हमने खांसते हुए ही उन्हें सारी बातें बताईं कि किस प्रकार किसी भी औषधिका अंशमात्र भी लाभ नहीं हो रहा है । वे कुछ नहीं बोले और उन्होंने दूरभाष रख दी ।   अगले दिवस उनका पुनः दूरभाष आया कि श्रीगुरु मुझसे बात करना चाहते हैं और उन्होंने बताया कि आपकी खांसीके सम्बन्धमें भी मैंने बता दिया है; उनकी बात सुन, मैं झेंप गई, मैं श्रीगुरुको अपने किसी भी कष्टके सम्बन्धमें कभी नहीं बताया करती थी । मैंने उन्हें दूरभाष किया । उस दिवस, उनसे तीनसे चार मिनटका ही सत्संग मिला होगा । उन्होंने प्रसारसे सम्बन्धित कुछ बातें पूछीं और तत्पश्चात एक वाक्य कहा “कल मुझे अरविन्दने बताया कि आपको लम्बे समयसे खांसी है, ध्यानमें रखें, शक्तिको तोडेंगे तभी शिव मिलेगा !” इतना बताकर, उन्होंने वार्तालाप समाप्त कर दी । मैं समझ गई कि यह खांसी अनिष्ट शक्तियोंके कारण हुई है; परन्तु आश्चर्य उनसे बात करनेके पश्चात् मुझे एक बार भी खांसी हुई ही नहीं और इस बातका भान मुझे २४ घण्टे पश्चात् हुआ । जब मुझे इसका भान हुआ तो मैं जैसे आनन्दके सागरमें डूब गई ! मात्र कुछ मिनिटका सत्संग और इतनी पुरानी खांसी समाप्त हो गयी, मैं समझ गई यह उनके संकल्पके कारण ही हुआ था !
धर्मयात्राके मध्य ख्रिस्ताब्द २०१० में दिल्लीमें मैं एक परिचितके (‘फेसबुक’ मित्र) घर गई थी । उनकी पत्नीसे बात करते समय उन्हें बार-बार खांसी हो रही थी । मैंने उनसे कहा ‘‘लगता है आपको खांसी हो गई है‘‘, उन्होंने कहा “चार माससे है और किसी भी औषधिका प्रभाव नहीं पड रहा है ।” मैंने अपनी अनुभूति खांसीके सम्बन्धमें उन्हें सुनाई और उन्हें साधना बता एक घण्टेमें उनके घरसे वहां आ गई जिनके घर रात्रि निवास नियोजित थी । तीन दिनके पश्चात् उन्होंने बताया कि मेरे जानेके पश्चात् उन्हें तीन दिनसे एक बार भी खांसी हुई ही नहीं और इस बातका भान उन्हें तीन दिनके पश्चात् हुआ ! मात्र मेरे गुरु संस्मरणको सुन उनपर आध्यात्मिक उपाय (स्पिरिचुअल हीलिङ्ग) हो गया और उनकी खांसी ठीक हो गई, अब ऐसे श्रीगुरुकी महिमाका मैं शब्दोंमें क्या वर्णन करूं !
आ.  श्रीगुरुकी कृपाके मनका निर्विचार अवस्थाकी ओर प्रवास होना
फरवरी २००८ में मैं गोवाके रामनाथी आश्रममें थी और मुझे नामजप ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’का जप करनेके लिए कहा गया था; परन्तु मेरा जप ‘ॐ नमो’ तक ही होता था इसके आगे हो ही नहीं पाता था और यह मन्त्र उसी प्रकार अखण्ड चलता था । सैद्धान्तिक रूपसे कुछ साधकोंकी अनुभूतियां सुनने या पढनेके पश्चात् ज्ञात था कि नाम जप जब निर्गुणकी ओर बढता है तब ऐसा होता है । मेरी अनुभूतिकी पुष्टि हेतु मैंने ईश्वरसे इस प्रकार जप चलनेका कारण पूछा तो उन्होंने भी बताया “नामजप जब निर्गुण स्तरपर होता है तब ऐसा होता है ।” ६०% आध्यात्मिक स्तरके पश्चात् ज्ञान सूक्ष्म हो जाता है, ऐसेमें अनिष्ट शक्तियां हमें दिग्भ्रमित कर सकती हैं; अतः समय–समयपर सूक्ष्मसे मिले उत्तरको श्रीगुरुसे पूछकर उसे मिला लिया करती थी ।
एक दिवस मैं रामनाथी आश्रममें सीढी चढकर अपने कक्षमें जा रही थी और मैंने देखा कि श्रीगुरु भी मेरे आगे–आगे जा रहे थे, मैं धीरेसे उनके एक सीढी पीछे हो ली, उन्होंने पीछे मुडकर देखा और मुस्कुराए । मैंने दो-तीन मिनटके पश्चात् अपनी नामजपसे सम्बन्धित शंका झटसे व्यक्त कर दी । उन्होंने पुनः एक दृष्टि डाली और कहा, “जाने दो, कुछ तो हो रहा है” इतना कहकर वे आगे बढ गए । ऐसा लगा जैसे वे कह रहे हों, आगे यह भी नहीं होगा । कुछ समय पश्चात् मनकी निर्विचार अवस्थाकी स्थितिमें वृद्धि होती चली गई । यह स्थिति मात्र श्रीगुरुकी कृपाके कारण ही साध्य हो पाया ।
इ. श्रीगुरुके एक वाक्यने मनमें बोया निडरताका संस्कार
दिसम्बर २००७ में एक दिवस रामनाथी आश्रममें, मैं श्रीगुरुके सत्संगमें कुछ साधकोंके साथ बैठी थी, साथ ही कुछ और साधक जो बाहरसे आए थे, वे भी बैठे थे । सत्संग समाप्त होनेके पश्चात् जब शंका समाधानका सत्र आरम्भ हुआ तो मैंने अपने श्रीगुरुसे अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा “आप दैनिक ‘सनातन प्रभात’में सभीकी चूकोंको एवं अयोग्य वक्तव्यों और कृतियोंको सुस्पष्टतासे लिखते हैं और इस प्रकार दुर्जन राजनेता, भ्रष्ट प्रशासनिक पदाधिकारी, जेहादी मुसलमान और हिन्दू धर्मको हानि पहुंचाने हेतु हिन्दुओंको धर्मांतरित कर रहे ईसाई मिशनरी, क्या ऐसा कर हमने सभीसे बैर नहीं मोल ले लिया है ?” मेरे श्रीगुरुने भगवान कृष्ण समान खिलखिलाकर हंसते हुए सब साधकोंकी ओर संकेत कर मुझे कहा “अरे, देखो, तनुजा ठाकुर डर गई !” उनके उस ब्रह्मवाक्यमें न जाने क्या शक्ति थी, उस दिनसे मैं भी पूर्णतः निडर हो गई और मुखर होकर सबके समक्ष तत्त्वनिष्ठ होकर किसीके भी द्वारा समष्टिको हानि पहुंचानेवाली चूकों, अयोग्य कृतियों एवं अयोग्य दृष्टिकोणोंका विरोध करने लगी हूं, ऐसा करते समय उसे दूरगामी परिणामका मुझे तनिक भी भय नहीं होता ।  श्रीगुरुके उस वाक्यसे मुझे एक और बोध हुआ कि मात्र परमेश्वर स्वरूपी सन्तमें ही इतनी शक्ति होती है कि वे अपने शिष्यके मनमें मात्र एक वाक्यसे निर्भीकताका बीजारोपण कर दे और मात्र पूर्ण सन्तोंमें ही वह अपार शक्ति है कि वे सभी धर्मद्रोहियों एवं राष्ट्रद्रोहियोंका मुखर होकर विरोध कर सकते हैं । हम सामान्य साधक उनके संरक्षणमें हैं; अतः उसी निर्भीकतासे समाजमें फैली दुर्जनताके सम्बन्धमें प्रबोधन करना हमारा कर्तव्य है !
इस प्रसंगके पश्चात् अब किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थति यहां तक की मृत्युका भी भय नहीं लगता और इसका भान मुझे तब हुआ जब मैं अपने पैतृक गांवमें पैतृक निवासमें दो वर्ष एक बडे और सुनसान घरमें अकेली आनन्दपूर्वक रही, जिसे लोग भुतहा कहकर अकेले जानेसे भी डरते थे, एक बार तो अर्ध रात्रिमें कोई चोर भी आ चुका था तब भी मैं जब बाहर निकलती थी तो भी मुझे अंशमात्र भय नहीं लगता था या विश्वके अनेक देशोंकी धर्मयात्रा भी अकेली करने हेतु चली गयी एवं उस समय भी एक विचित्रसी निर्भयताका बोध हुआ और मुझे ज्ञात हुआ निर्भयतामें असीम आनन्द है ! इस निर्भयता रुपी आनन्द देनेवाले मेरे कृष्णस्वरूपी सद्गुरुके चरणोंमें अपनी अश्रुसुमन रुपी पुष्प अर्पण कर, अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूं ।
ई. एक क्षणके स्पर्शके माध्यमसे दी अखण्ड आनन्दकी अनुभूति
सितम्बर १९९९ में मैं गोवा आश्रममें गई थी, प्रथम दिवस जब मुझे उनका दर्शन मिला तो वे अपने कक्षमें थे । जब मैं उनके पास पहुंची तो वे खडे थे और कुछ कर रहे थे । उस वर्ष अत्यधिक विपरीत परिस्थितियोंमें मैं धर्मप्रसारकी सेवा कर रही थी और सम्भवतः वे मुझसे अत्यधिक प्रसन्न थे । उनके समक्ष पहुंचनेके पश्चात्, मैं उनके चरण वन्दन करनेके लिए झुकी, उन्होंने पादतत्राण(चप्पल) पहन रखे थे, मैं जैसे ही झुकी उन्होंने बडे प्रेमसे अपनी चप्पल एक ओर निकाल कर मुझे प्रणाम करनेका सौभाग्य दिया । मुझे जहां तक स्मरण है इस प्रकार, मेरे श्रीगुरुके चरण स्पर्शकी प्रथम और अन्तिम सन्धि थी । उसके पश्चात् मनमें आता था कि स्थूलसे सूक्ष्म श्रेष्ठ है; अतः उन्हें मनसे प्रणाम करूं और उन्होंने भी कभी इस भांति मुझे नमस्कार करनेकी पुनः सन्धि नहीं दी और न ही मेरी इच्छा उत्पन्न हुई; परन्तु परमेश्वर स्वरूपी सद्गुरुके एक क्षणके स्पर्शने मेरे अंतःकरण जिस आनन्दके तत्त्वको जागृत किया उसकी अखण्ड प्रतीति मुझे होती रहती है । सत्य है, पूर्ण पुरुषके एक क्षणका दिव्य स्पर्श हमारा कल्याण करनेका सामर्थ्य रखता है !   – तनुजा ठाकुर



One response to “श्रीगुरुकी महिमा”

  1. M.Ramesh.Babu says:

    अद्भुत । साधो साधो। अविस्मरणीय
    आप महान भग्यशाली ह

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