लो आ गई पुन: गुरुपूर्णिमा ।
छा गई सर्वत्र श्रीगुरुकी अरुणिमा । ।
सखी री, मन मयूर करने लगा नृत्य ।
सोच हमारे परात्पर श्रीगुरुकी महिमा ।।
करने हमारे श्रीगुरुका गुणगान ।
जन्म ले रहीं हैं दिव्यात्माएं महान ।।
अल्पायुसे दे रहे अपनी साधनाका अभिज्ञान ।
करेंगे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें ये धर्मका अधिष्ठान ।
‘सनातन’ बन गया दिव्य विश्वव्यापी प्रतिष्ठान ।।
निर्माण हो रहा है हिन्दुओंमें संघ भाव ।
श्रीगुरुके संकल्पसे ।।
कांपने लगे हैं राष्ट्रद्रोही व धर्मद्रोही
छह हिन्दू अधिवेशनोंमें हुए ।
‘जयतु जयतु हिन्दू राष्ट्रं’के जयघोषसे ।।
भयभीत होकर छोटे-मोटे दुर्जन ।
करने लगे हैं धर्मका अनुसरण ।।
साधकोंके क्लेशका होने लगा है हरण ।
अब तो निश्चित है इस धराका तरण ।।
सन्तवृन्द कर रहे हैं श्रीगुरुके कार्य हेतु अनुष्ठान ।
सान्निध्य उनका पाकर मान रहे स्वयंको भाग्यवान ।।
कर रहे है महर्षि-गण उनकी स्तुति ।
कोटि वर्ष पूर्व लिखी जीव-नाडी पट्टीमें ।
मिल रही उनकी अलौकिकताकी अभिव्यक्ति ।।
होने लगी हैं सामन्य हिन्दुओंको भी ।
अब उनकी दिव्यताकी अनुभूति ।।
सोचकर यह सब आनन्दित हो रहा मन मेरा ।
बस आने ही वाला है सनातनका सवेरा ।।
रखो धैर्य साधको ! श्रीगुरुके अस्तित्वसे ।
स्थापित होगा शीघ्र भारतमें सनातन धर्मराज्य ।
तत्पश्चात् सर्वत्र फैलेगा साधकोंका साम्राज्य ।।
गुणातीतका कैसे करूं उल्लेख गुणोंमें ।
भावातीतका करूं वर्णन भावमें ।।
रह गई अपूर्ण श्रीगुरुकी महिमा ।
इस अधमके शब्दोंके अभावमें ।। – तनुजा ठाकुर (२३.५ २०१७)
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