प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतिका क्यों करें पोषण ?
अ. प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति, आगामी आपातकाल हेतु पूरक चिकित्सा पद्धति
अनेक सन्तों एवं भविष्यद्रष्टाओंने कहा है कि आनेवाले कुछ वर्ष अत्यन्त क्लेशप्रद होंगे । भारतमें ख्रिस्ताब्द २०२३ से हिन्दू राष्ट्रकी स्थापनासे पूर्व सर्वत्र अराजकता व्याप्त हो जाएगी, पञ्च तत्त्वोंका प्रकोप, बाह्य आक्रमण, आन्तरिक गृहयुद्ध यह सब घटित तो होगा ही साथ ही वैश्विक स्तरपर तीसरा महायुद्ध आरम्भ होनेसे विकसित राष्ट्रोंमें सर्वाधिक विनाश होगा, जिससे वहांके उद्योग एवं व्यापार लगभग नष्ट हो जाएंगे एवं सम्पूर्ण विश्वमें यह विनाशलीला फैल जाएगी, ऐसेमें ‘एलोपैथ’ उद्योग सबसे अधिक प्रभावित होगा; इसलिए द्रष्टा सन्तोंने प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति सीखने एवं सिखानेको सभीके लिए स्पष्ट निर्देश दिए हैं । ऐसेमें हमें भी अपनी पूर्व सिद्धता कर लेनी चाहिए; क्योंकि जब आग लगती है तब कुंआ नहीं खोदा जाता; अतः हम आपको ऐसे ही कुछ और चिकित्सा पद्धतियोंके विषयमें बताएंगे जो आप स्वयं भी कर सकते हैं एवं दूसरोंको भी सिखा सकते हैं तथा आपातकालमें इसका प्रयोग कर लोगोंके स्वास्थ्य एवं प्राणोंकी रक्षा भी कर सकते हैं; अतः ऐसे लेखोंको अच्छेसे अभ्यास करें एवं आवश्यकता पडनेपर अभीसे उसे अपने जीवनमें उतारनेका प्रयास करें ! यदि आपके पास ऐसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतिके कोई विशेषज्ञ हों तो उनसे यह सब सीखें और उसका अभ्यास करें एवं करवाएं ! ‘एलोपैथी’से अपनी निर्भरता जितना शीघ्र हो सके न्यून कर लें अन्यथा आनेवाले कालमें आपको अत्यधिक कठिनाई होगी जब उसकी औषधियां अप्राप्य होने लगेंगी एवं एलोपैथीमें बिना औषधियोंके उसके चिकित्सक किसी उपयोगके नहीं होते, यह तो आपको ज्ञात ही है; वस्तुत: ख्रिस्ताब्द २०३० तक तो यह चिकित्सा प्रणाली सम्पूर्ण विश्वमें मृतप्राय हो चुकी होगी; अतः यदि आप अपनी सन्तानोंको चिकित्सकीय क्षेत्रमें जीविकोपार्जन हेतु डाल रहे हैं तो उन्हें आयुर्वेदमें जानेको कहें; क्योंकि भविष्यमें अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियोंके साथ ही इसकी सर्वाधिक मांग होगी एवं सम्पूर्ण विश्वमें इसका प्रचलन रहेगा; अतः द्रष्टा सन्तोंके संकेतको समझकर योग्य उपाय योजना अभीसे निकालना आरम्भ कर दें एवं आयुर्वेद तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतिको अपनाएं तथा इसका प्रचार-प्रसार करें !
आ. हस्त मुद्रा चिकित्सा पद्धति क्या है ?
हमारा शरीर अनन्त रहस्योंसे भरा हुआ है एवं इस शरीरको स्वस्थ बनाए रखनेकी शक्ति हमारे शरीरमें ही ईश्वरने निहितकी है । शरीरकी अपनी एक मुद्रामयी भाषा है, जिसे सूक्ष्म ज्ञानके अभावमें हम कालान्तरमें भूल चुके हैं एवं इन्हें शास्त्रानुसार करनेसे हमें शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों स्तरपर लाभ प्राप्त होते हैं । ऋषि–मुनियोंने सहस्रों वर्षों पूर्व इस सूक्ष्म विधाको अपनी प्रज्ञाशक्तिके बलपर ढूंढ निकाला था एवं वे उसके नियमित उपयोगसे स्वस्थ रहते थे तथा हिन्दू धर्मके अनेक आचारधर्मके पालनमें इसे समाविष्ट भी किया गया था, जैसे नमस्कार, हाथसे भोजन ग्रहण करना, पैर मोडकर भिन्न प्रकारके आसन बनाकर अपनी दिनचर्याके मध्य बैठना, ये सब विशिष्ट मुद्राओंसे प्रभावित रहे हैं । यथार्थमें मुद्राएं शरीरमें चैतन्यको अभिव्यक्ति देनेवाली कुंजियां हैं । मुद्राओंका प्रयोग हमारे देवी-देवताओंकी मूर्तियोंमें, देवालयोंकी कलाकृतियोंमें तथा भारतीय नृत्य शैलीमें हुआ है । यहांतक कि हाथसे भोजन ग्रहण करते समय उस विशेष मुद्रासे हमें लाभ मिलता है; अतः हम हाथसे भोजन करते हैं ।
पञ्च तत्त्वोंसे बने इस शरीरके यदि इन तत्त्वोंको सन्तुलित रखा जाए तो आरोग्यता प्राप्त होती है । मात्र कुछ शतकोंसे धर्म और अध्यात्मसे दूर जानेके कारण ऐसे सभी सूक्ष्म प्राकृतिक एवं सरलतासे उपलब्ध चिकित्सा पद्धतियोंसे हम दूर हो गए हैं; किन्तु हम उनके प्रति कृतज्ञ हैं जिन्होंने ऐसी सभी चिकित्सा पद्धतियोंको कहीं न कहीं प्रचलित कर, उसे जीवित रखा है; अतः अब हम ऐसी सभी चिकित्सा पद्धतियोंको उनके विशेषज्ञोंसे सीखकर उसे अपनानेका पुनः प्रयास करेंगे । इस हेतु इन्हें सीखकर, अभ्यास करनेकी मात्र आवश्यकता है ।
इ. हस्त मुद्राओंकी संख्या
मुद्राओंकी निश्चित संख्याको बताना थोडा कठिन है एवं शास्त्रोंमें इसका भिन्न स्थानोंपर वर्णन तथा प्रकार दिए गए हैं । मुद्राके विषयमें बतानेवाला सबसे प्राचीन ग्रन्थ घेरण्ड संहिता है । हठयोगपर आधारित इस ग्रन्थको महर्षि घेरण्डने लिखा था । घेरण्ड संहितामें २५ और हठयोग प्रदीपिकामें १० मुद्राओंका उल्लेख मिलता है; परन्तु अन्य योगके ग्रन्थोंमें भी अनेक मुद्राओंके विषयमें जानकारी दी गई है; किन्तु प्रमुखत: मुद्रा चिकित्सा पद्धतिके प्रचारक ७२ मुद्राओंका विशेष रूपसे प्रचार-प्रसार करते हैं । इनमेंसे ५० से ६० हस्त मुद्राएं अधिक प्रचलित हैं ।
ई. हस्त मुद्रा किसप्रकार कार्य करती है ?
हस्त मुद्राओंका सम्बन्ध शरीरके स्वयं कार्य करनेवाले अंगों एवं स्नायुओंसे है । मानव शरीर पञ्च तत्त्वों अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाशसे मिलकर बना है । मुद्राशास्त्र अनुसार जबतक शरीरमें ये तत्त्व सन्तुलित रहते हैं, तबतक शरीर नीरोगी रहता है एवं यदि इन तत्त्वोंमें असन्तुलन हो जाए तो नाना प्रकारके रोग उत्पन्न हो जाते हैं । इन तत्त्वोंको यदि हम पुन: सन्तुलित करेंगे तो शरीर नीरोगी हो जाएगा । हस्तमुद्रा चिकित्साशास्त्र अनुसार हाथोंकी पांचों अंगुलियां पञ्च तत्वका प्रतिनिधित्व करती हैं और ब्रह्माण्डीय ऊर्जाके माध्यमसे इन तत्त्वोंको बल प्रदान करती हैं । अंगूठेमें अग्नि तत्त्व, तर्जनीमें वायु तत्त्व, मध्यमामें आकाश तत्त्व, अनामिकामें पृथ्वी तत्त्व तथा कनिष्ठामें जल तत्त्वकी ऊर्जाका केन्द्र है । इसप्रकार अंगुलियोंको आपसमें मिलाकर मुद्राएं बनाईं जाती हैं एवं भिन्न तत्त्वोंको शरीरमें सन्तुलित किया जाता है ।
एक और मतानुसार अंगुलियोंके पांचों वर्गसे भिन्न-भिन्न विद्युत धारा प्रवाहित होती हैं । इसलिए मुद्रा विज्ञानमें जब अंगुलियोंको रोगानुसार आपसी स्पर्श करते हैं, तब हमारी सूक्ष्म नाडियों एवं नसोंमें विद्युतकी अवरुद्ध धारा बहने लगती है या असन्तुलित विद्युत प्रवाह ठीक हो जाता है इससे हमारा शरीर नीरोग होने लगता है । पद्मासन, स्वस्तिकासन, सुखासन या वज्रासनमें करनेसे जिस रोगके लिए जो मुद्रा वर्णित है उसको इस भावसे करना चाहिए कि मेरा रोग ठीक हो रहा है, तब ये मुद्राएं शीघ्रतासे रोगको दूर करनेमें लग जाती हैं । मुद्रा शास्त्रमें बिना विश्वासके लाभ अधिक नहीं मिल पाता ।
उ. हस्त मुद्रा कितने समयतक करना चाहिए ?
सामान्यतः दिनमें ४८ मिनिटतक एक मुद्राको किया जाए तो पूरा लाभ प्राप्त होता है कुछ मुद्राओंको रोगके अनुसार इससे अधिक कालतक भी किया जा सकता है एवं कुछ मुद्राओंको रोगके अनुसार या शरीरके वात, पित्त या कफ प्रकृति अनुसार न्यून या अधिक समयतक भी किया जाता है । एक बारमें यदि बताए गए समय अनुसार एक ही सत्रमें मुद्रा करना सम्भव न हो तो ८ या १६ मिनिटके सत्रोंमें इसे विभाजित कर किया जा सकता है ।
ऊ. मुद्राके अभ्यासके समय किन बातोंका ध्यान रखना चाहिए ?
१. मुद्राका अभ्यास नित्य कर्म एवं स्नानादि करनेके पश्चात् करना चाहिए ।
२. जब मुद्रा बाएं हाथसे की जाती है तो शरीरका बायां भाग प्रभावित होता है एवं उसीप्रकार जब दाहिने हाथसे मुद्रा की जाती है तो वह शरीरके दाहिने भागको प्रभावित करती है; अतः शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हेतु दोनों हाथोंसे मुद्रा करना अपेक्षित है ।
३. हस्त मुद्रा करते समय जब किसी भी अंगुलीके अग्र भागको अंगूठेका स्पर्श कराया जाता है तो उस अंगुलीसे सम्बन्धित तत्त्वमें वृद्धि होती है एवं जब अंगुलीको अंगूठेके मूल या जडमें स्पर्श किया जाता है तो उस अंगुलीसे सम्बन्धित तत्त्व घटते हैं, हस्त मुद्राका यह सिद्धान्त अति महत्त्वपूर्ण है और अभ्यासकने इसका अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए ।
४. आकाश शामक एवं अपान वायु मुद्राको छोडकर शेष सभी मुद्राओंको प्रतिदिन ४८ मिनिटतक न्यूनतम (कमसे कम) १५ दिवसतक करनेसे ही आवश्यक लाभ मिलता है ।
५. रोग अनुसार पथ्यके पालनसे मुद्रामें अधिक लाभ मिलता है ।
६. मुद्राके साथ किसी भी प्रणालीकी औषधियोंका प्रयोग किया जा सकता है ।
मुद्रा यदि रोग अनुसार किसी मुद्रा विशेषज्ञसे पूछकर किया जाए तो अधिक लाभ होता है । आपको बता दें उपासनाके आध्यात्मिक उपाय केन्द्रमें हम शारीरिक एवं मानसिक या आध्यात्मिक स्वरूपके शारीरिक और मानसिक कष्टोंके निवारण हेतु विशिष्ट मुद्राओंके विषयमें बताते हैं ।
इस हेतु आप उपासनाके आध्यात्मिक केन्द्रमें सम्पर्क कर और जानकारी प्राप्त कर सकते हैं एवं इस पत्रिकामें प्रकाशित होनेवाले लेखोंको पढ सकते हैं । – तनुजा ठाकुर ( क्रमश: )
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