जीवधारियोंके शरीरमें समय निर्धारणकी एक समुन्नत व्यवस्था होती है, जिसे हम जैविक घडी अर्थात ‘बायोलॉजिकल क्लॉक’ कहते हैं ।
मनुष्यमें, जैविक घडीका मूल स्थान हमारा मस्तिष्क है । हमारे मस्तिष्कमें करोडों कोशिकाएं होती हैं, जिन्हें हम ‘न्यूरॉन’ कहते हैं । ये कोशिकाएं, सम्पूर्ण शरीरकी गतिविधियोंको नियन्त्रित एवं निर्धारित करती हैं । एक कोशिकासे दूसरी कोशिकाको सूचनाका आदान-प्रदान विद्युत स्पन्दनोंद्वारा दिया जाता है । हम रात्रिमें एक विशेष समयपर
सोने जाते हैं तथा प्रातःकाल स्वतः ही जाग जाते हैं ।
अब विचारणीय है कि हमें कैसे ज्ञात होता है कि सवेरा हो चुका है ? कौन हमें जगा देता है ?
हम निद्रामें रहते हैं; किन्तु हमारा मस्तिष्क तब भी सक्रिय रहता है ।साधारणतः हम एक मिनटमें १५-१८ बार सांसें लेते हैं तथा हमारा हृदय ७२ बार धडकता है, यह कहांसे सञ्चालित होता है ?
पतझडमें पुरानी पत्तियोंका गिरना एवं पौधोंका नूतन कोपलोंको धारण करना, समयपर ही बीज विशेषमें अंकुरण होना, पेड-पौधोंमें, निश्चित समयपर, वसन्तके समय पुष्पोंका लगना एवं फल बनना, सब जैविक घडीकी सक्रियताका ही परिणाम है ।
जैविक घडीसे व्यक्तिके सोचने-समझनेकी दशा एवं दिशा, तर्क-वितर्क, निर्णय क्षमता एवं व्यवहारपर भी प्रभाव पडता है । कई दिनोंसे न सो पाए अथवा अनियमित दिनचर्यावाले व्यक्ति, चिडचिडे स्वभावके हो जाते हैं । किसी बातको तत्काल स्मरण नहीं कर पाते तथा किसी बातपर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं । पारीमें (‘शिफ्ट’में) कार्य (ड्यूटी) करनेवालोंकी ये सामान्य समस्या है । ऐसा, उनकी जैविक घडीमें आए व्यवधानके कारण ही होता है ।
हमारी जैविक घडी, दिन तथा रात होनेके साथ ही बाहरी स्थितियोंसे सामञ्जस्य स्थापित कर लेती है । रात्रि होनेपर वह हमें सोनेके लिए प्रेरित करती है तथा हमारे संवेदन एवं ज्ञानेन्द्रियोंको मन्दकर विश्रामकी स्थितिमें लाती है, जिससे हम सो सकें ! प्रातःकाल पुनः हमें जगा भी देती है ।
जैविक घडीमें आया व्यवधान, धीरे-धीरे दूर हो जाता है तथा बाह्य स्थितियोंसे वह पुनः सामञ्जस्य स्थापित कर लेती है । दिन एवं रातके अनुसार हमारे शरीरका तापमान भी निश्चित प्रारूपके अनुसार परिवर्तित होता रहता है ।
धरतीके घूमनेपर हमारे अङ्गोंकी कार्यप्रणाली भी परिवर्तित होती रहती है । शोधकर्ताओंके अनुसार, पृथ्वी २४ घण्टे अपनी धुरीपर घूमती रहती है । इससे मनुष्य शरीरके आन्तरिक रसायन, बुरे एवं अच्छे, दोनों प्रकारसे प्रभावित होते रहते हैं । इस मध्य मस्तिष्क, यकृत (लिवर), हृदय एवं कोशिकाओंके कार्य करनेकी पद्धतियां तीव्र गतिसे परिवर्तित होती रहती हैं । वैज्ञानिक, गम्भीरतासे इसपर अध्ययन कर रहे हैं, जिससे समय एवं अङ्गोंके कार्य करनेकी पद्धतियोंके सम्बन्धमें अधिकसे अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके; किन्तु भारतीय ऋषियोंने इसपर पूर्वमें ही शोध कर लिया था ।
हमारे पूर्वजोंने सभ्यताके विकासके प्रारम्भमें ही समयके महत्त्वको समझ लिया था । उन्होंने सूर्य, चन्द्रमा, ग्रहों एवं नक्षत्रोंकी गतिविधियोंद्वारा समयका लेखा-जोखा रखनेका एक विज्ञान विकसित किया । उन्होंने घडीके आविष्कारके पूर्व ही समयको भूत, भविष्य एवं वर्तमान, दिन-रात, प्रातःकाल, मध्याह्नकाल, सन्ध्याकाल, क्षण, प्रहर आदिमें बांटकर सोने-जागने, खाने-पीने, कार्य करने तथा विश्राम करने, मनोरञ्जन आदि सभी क्रियाकलापोंको समयबद्ध रीतिसे करनेपर बल देकर सम्पूर्ण दिनचर्याको धार्मिक परम्परामें बांध दिया था ।
हमारे ऋषियों एवं आयुर्वेदाचार्योंने जो शीघ्र सोने-जागने एवं आहार-विहारकी बातें बताई हुई हैं, उनपर अध्ययन व शोध करके आधुनिक वैज्ञानिक तथा चिकित्सक, अपनी भाषामें उसका पुरजोर समर्थन कर रहे हैं ।
आपने कलाई घडी, ‘दीवार’ घडी, ‘इलेक्ट्रॉनिक’ घडी एवं ‘इलेक्ट्रॉनिक क्वार्ट्ज’ घडियों आदिका नाम अवश्य सुना होगा; किन्तु ‘जैविक घडी’का नाम आपने कदाचित ही सुना होगा । वास्तवमें यह घडी आपके भीतर ही होती है । इस घडीके ३ प्रकार हैं – प्रथम है शारीरिक समय चक्र, द्वितीय है मानसिक समय चक्र तथा तृतीय है आत्मिक समय चक्र । यहां हम बात करेंगे प्रथम अर्थात शारीरिक समय चक्रकी। (क्रमशः)
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