जन्म ब्राह्मणों यदि आपका यज्ञोपवित संस्कार हो गया हो तो उसे अवश्य धारण कर धर्माचरण करें !


 

यज्ञोपवीतका महत्त्व :-

यज्ञ रूपी परमात्माके लिए जो प्रतिज्ञा सूत्र धारण करता है, उसे यज्ञोपवीत(जनेऊ) कहते  हैं ।

उपवीती भवेन्नित्यं विधिरेषः सनातनः ।

अर्थात् – सदा उपवीती होकर रहे, यह सनातन विधि है ।

हमारा जीवन उद्देश्यमय जीवन है । जो व्यक्ति निरुद्देश्य जीते हैं खाते, पीते, सोते, कमाते, स्त्री सेवन करते और मर जाते हैं, ऐसे व्यक्तियोंका जीवन पशु तुल्य है । हिन्दू धर्म ऐसे जीवन को घृणाकी दृष्टिसे देखता है और उपदेश देता है की प्रत्येक व्यक्ति सदा उपवीती होकर रहे अर्थात् उद्देश्यमय जीवन व्यतीत करे । उद्देश्यमय जीवनमें प्रवेश करनेके लिए ही यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है ।

उपवीतिने पुष्टानां पतये नमः ।          – यजुर्वेद १६ / १७

उपवीत वाले पुष्ट – बलवानके लिए नमस्कार है ।

इससे स्पष्ट होता है कि उपवीतवाले पुष्ट, बलवान और नमस्कार योग्य होते हैं ।

उपवीत और द्विजत्त्व :-

प्रथम जन्म माताके पेटसे होता है और दूसरा यज्ञोपवीत संस्कार करनेसे होता है ।

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों द्विजाति कहलाते हैं; क्योकि यज्ञोपवीत धारण करनेपर उनका दूसरा जन्म होता है ।

गर्भमें बस कर माता और पिताके संबंधसे मनुष्यका पहला जन्म होता है, दूसरा जन्म विद्या रूपी माताके गर्भमें आचार्य रूप पिताद्वारा गुरुकुलमें उपनयन और विद्या अभ्याससे होता है ।

माताके गर्भसे जो जन्म होता है वह पशु जन्म है; क्योकि वह शरीर मात्रका जन्म है । जब मनुष्यका प्रवेश ज्ञानके क्षेत्रमें होता है तब उसका दूसरा जन्म होता है । सद्गुरुकी शिक्षासे विचार, विश्वास, संस्कार, स्वभाव तथा चरित्रका निर्माण होता है । साधारणतः उल्टी – सीधी, भली – बुरी शिक्षा प्रायः सभी बालको को मिलती है परंतु जो शिक्षा धर्मानुकूल, शास्त्र सम्मत, उद्देश्यमय एवं ब्रह्ममार्गी होती है, उसे विधिपूर्वक पवित्रता और विश्वासके साथ प्राप्त करना द्विजत्व कहलाता है । यज्ञोपवीत द्विजत्वमें प्रवेश करनेका प्रमाण पत्र है । कहा गया है कि : –

जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात द्विज उच्यते ।

वेदपाठी भवेद विप्र: जानेति ब्राह्मण: ॥

अर्थात् – जन्मसे तो मनुष्य शूद्र होता है, संस्कार(यज्ञोपवीत) हो जानेपर वह द्विज कहा जाता है । जो वेदपाठी है वह विप्र और जो ब्रह्मको जानता है, वह ब्राह्मण है ।

कृतोपनयनस्यास्य व्रतादेशञ्च कथ्यते ।

ब्राह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण विधि पूर्वकम् ॥        – मनुस्मृति २/१७३

अर्थात् – यज्ञोपवीत होनेके उपरांत व्रत आदि और नियमपूर्वक ब्रह्म ग्रहणका(वेदाध्ययन) अधिकार प्राप्त होता है ।

यज्ञोपवीतमें तीन सूत्र(तार) होते हैं । तीन सूत्रोंसे तीन ऋणोंका बोध होता है । धर्मग्रन्थके अध्ययन एवं अध्यापनसे ऋषि ऋण, यज्ञसे (कलियुगमें जप भी यज्ञ ही है ) देव ऋण और पितृकर्मसे पितृ ऋण चुकाया जाता है; अतः यज्ञोपवीतधारीको इन तीनों ऋणोंसे मुक्त होनेका प्रयत्न करना चाहिए ।

कानपर जनेऊ चढानेका शास्त्र :-

मूत्र त्यागनेके समय कानपर यज्ञोपवीत २ बार लपेटना चाहिए तथा शौचके समय ३ बार लपेटना चाहिए । कहीं–कहीं ऐसा भी देखा जाता है कि मूत्र त्याग करते समय दाहिने कानपर एवं शौच जाते समय बाएं कानपर यज्ञोपवीत चढाया जाता है ।

मलमूत्र त्यागमें अशुद्ध वायु, अशुद्ध जल, अशुद्ध पदार्थ एवं अशुद्ध अंगोंसे यज्ञोपवीतका स्पर्श हो जानेकी आशंका रहती है; परंतु उपवीतकी पवित्रता सदा बनाए रखना आवश्यक है इसलिए मलमूत्र त्यागके समय कानपर जनेऊ चढानेका विधान है । कानपर लपेट लेनेसे यज्ञोपवीत ऊंचा हो जाता है और उसके अपवित्र होनेकी आशंका नहीं रहती है ।

ऐसा भी कहा जाता है की कानमें जो मूल नाडियां हैं उनका मूत्राशय एवं गुदासे संबंध है । दाहिने कानकी नाडीसे मूत्राशयका और बाएं कानकी नाडीसे गुदाका संबंध है । मूत्र त्याग करते समय जनेऊसे बाएं कानको लपेटनेसे उन नाडियोंपर दबाब पडता है फलस्वरूप मूत्राशयकी नाडियां भी सुदृढ रहती हैं । तदनुसार बहुमूत्र, मधुमेह, प्रमेह आदि रोग नहीं होते । इसी प्रकार दाहिने कानकी नाडियां दबनेसे गुदा संबंधी रोग जैसे अर्श(बबासीर, पाइल्स) आदि नहीं होते ।

नियम-उपनियम :-

सदा यज्ञोपवीत धारण किए और शिखामें गांठ लगा कर रहना चाहिए । विना शिखा और सूत्रवाले यज्ञोपवीतका सुकृत निष्फल जाता है ।

यज्ञोपवीतकी भांति शिखाका भी उतना ही महत्त्व है । शिखामें भी गांठ लगाए रखना ही उसका विधान  है ।

अधिकसे अधिक १६ वर्ष तक ब्राह्मणका, २२ वर्ष तक क्षत्रियका और २४ वर्ष तक वैश्यका यज्ञोपवीत हो जाना चाहिए । ब्रह्मत्त्व प्रधान बालकोमें धर्म साधना अल्पायुमें ही उग आती है । क्षत्रियत्त्वका शरीरकी पुष्टतासे संबंध होनेके कारण उसकी प्रतिभा कुछ विलंबसे उगती है । वैश्यत्त्वके लिए अनुभव और सांसारिक ज्ञानकी आवश्यकता होती है । यह तत्त्व अपेक्षाकृत देरसे परिपक्व होता है अतएव ब्राह्मणको सबसे शीघ्र उसके उपरांत क्षत्रिय और २४ वर्ष तक वैश्यका यज्ञोपवीत होना चाहिए । नियत समयपर उपवीत किसी कारणवश न हो सके तो भी अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिए; क्योंकि युवावस्थासे पूर्व ही संस्कारोंका बीजारोपण उचित प्रकारसे हो सकता है ।

जन्म सूतक, मरण सूतक, चाण्डाल स्पर्श, शवका(मुर्दे) स्पर्श, रजस्वलाका स्पर्श, मलमूत्र त्यागते समय कानपर यज्ञोपवीत चढानेमें चूक होनेपर जनेऊ अशुद्ध हो जाता है; अतः नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और पुरानेको शिरके मार्गसे उतार देना चाहिए ।

कंधेमें पीठ और नाभिका स्पर्श करता हुआ कटि तक पहुंच जाए, ऐसे आकारका यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, इससे बडा या छोटा न हो !

बहुत छोटा यज्ञोपवीत आयुका हरण करता है और बहुत बडा हमारे तापका हरण करता है; अतः जनेऊकी लंबाईका अत्यधिक महत्त्व है ।

यज्ञोपवीत निर्माण व पूजन मंत्र :-

यज्ञोपवीत बनानेके लिए स्नान करके स्वच्छ स्थानपर ही उसे बनाना चाहिए । यज्ञोपवीत बनानेके पश्चात् उसकी जलसे शुद्धि कर मंत्र सिद्ध किया जाता है । वह मंत्र इस प्रकार है –

प्रजापतेर्यत्सहजं पवित्रं कार्पाससूत्रोद्भव ब्रह्मसूत्रम्, ब्रह्मत्त्व सिद्धयै च यशः प्रकाशं व्रतस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्म सूत्र !

अर्थात् – हे ब्रह्म सूत्र ! आप प्रजापति द्वारा सहज पवित्र हैं, कपाससे उत्पन्न हुए ब्रह्मसूत्र हैं । आप ब्रह्माकी सिद्धि, यश, प्रकाश और व्रतकी सफलता दीजिये ।

यज्ञोपवीत धारण करनेसे पूर्व वंदन करना चाहिए । विसर्जन किया हुआ सूत्र जहां-तहां नहीं फेकना चाहिए वरन् उसे किसी पवित्र नदी, सरोवर, देवस्थान या पीपल, गूलर, बरगद जैसे पवित्र वृक्षपर छोडना चाहिए ।

 

 



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सम्बन्धित लेख


विडियो

© 2021. Vedic Upasna. All rights reserved. Origin IT Solution