कलियुगमें धर्मका एक ही अंग व्याप्त होनेके कारण समष्टि साधनाका महत्त्व ७० प्रतिशत है एवं व्यष्टि साधनाका महत्त्व ३० प्रतिशत है । व्यष्टि साधना अर्थात स्वयंकी कोई इच्छा पूर्ति या स्वयंकी आध्यात्मिक प्रगतिके उद्देश्यसे की जानेवाली साधना एवं समष्टि साधनाका अर्थ है, समाजको धर्मपालन एवं साधनाकी ओर उन्मुख करने हेतु किये जानेवाले प्रयत्न ! श्रीगर्गसंहिताके अश्वमेध खण्डमें कहा गया है –
ते सभाग्या मनुष्येषु कृतार्था नृप निश्चितम् ।
स्मरन्ति ये स्मारयन्ति हरेर्नाम कलौ युगे ॥
अर्थात मनुष्योंमें वे ही सौभाग्यशाली तथा निश्चय ही कृतार्थ हैं, जो कलियुगमें हरिनामका स्वयं स्मरण करते हैं और दूसरोंको भी स्मरण कराते हैं । इसीप्रकार एक सन्तने भी कहा है कि, जो स्वयं जपे और औरोंको जपाय, वही सद्गुरुका सतशिष्य कहलाए; अतः कलियुगमें स्वयं साधना करते हुए अन्योंको भी साधनाकी ओर प्रवृत्त करनेसे ईश्वर या गुरुकी कृपा शीघ्र प्राप्त होती है ।
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