आज हिन्दुओंमें कर्तापनकी भावना अत्यधिक बढ गई है; इसीलिए आज अनेक हिन्दू कुटुम्बके मुखियाको मात्र अपने चार सदस्योंवाले कुटुम्बको (दो सन्तानवाले परिवारको) पालन-पोषण करनेमें तनाव आता है । वहीं पूर्वकालमें सौ सदस्योंवाले कुटम्बके मुखिया आनन्दी रहते थे; क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि उनके कुटुम्बका भरण-पोषण, वे नहीं, अपितु ईश्वर कर रहे हैं एवं वे निमित्त मात्र हैं । साधनारत रहनेसे ही हमें यह ध्यान रहता है कि ईश्वर हमारे योगक्षेमका वहन अवश्य करेंगे; इसीलिए पूर्वकालमें लोगोंके पास साधनाके लिए समय होता था और आज कर्तापन बढ जानेके कारण उन्हें लगता है कि साधनामें समय देनेकी अपेक्षा, धन अर्जित करनेसे उनकी सन्तानें अधिक सुखी होंगी; किन्तु अधिकांश मात्र धन कमानेमें संलिप्त लोग अपनी सन्तानोंसे सम्बन्धित कुछ न कुछ कष्ट लेकर दुखी रहते हैं, इससे एक बात तो अवश्य ही सिद्ध हो जाता है कि धन आपको सुख क्रय कर नहीं दे सकता है, वह आपको शारीरिक सुखके साधन अवश्य दे सकता है, किन्तु मानसिक और आत्मिक शान्ति मात्र और मात्र ईश्वरप्राप्ति हेतु किए जाने पुरुषार्थसे ही आपको और आपकी संतानोंको सुख और शान्ति मिल सकती है ! एक सरलसा समीकरण जान लें, कर्तापन जितना अधिक है, कष्ट उतना ही अधिक होगा और ईश्वरके प्रति शरणागति जितनी अधिक दुःखका प्रमाण उतना ही अल्प (कम) होगा ! शरणागति बोलनेसे धर्मपालन और साधना करनेसे आती है और इसके लिए समय देना होता है ।
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